Wednesday 18 November 2015

bhajan

ज़री की पगड़ी बाँधे, सुंदर आँखों
वाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ।
ज़री की पगड़ी बाँधे...
कानों में कुण्डल साजे, सिर मोर मुकुट विराजे,
सखियाँ पगली होती, जब - जब होठों पे
बंशी बाजे ।
हैं चंदा यह सांवरा, तारे हैं ग्वाल बाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
लट घुँघरे बाल, तेरे कारे कारे बाल,
सुन्दर श्याम सलोना तेरी टेडी मेडी
चाल ।
हवा में सर - सर करता तेरा पीताम्बर मतवाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा
मुख पे माखन मलता, तू बल घुटने के चलता,
देख यशोदा भाग्य को देवों का मन जलता ।
माथे पे तिलक सोहे आँखों में काज़ल डारा,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
तू जब बंशी बजाए तब मोर भी नाच दिखाए,
यमुना में लहरें उठती और कोयल भी कू - कू गाए ।
हाथ में कँगन पहने और गल वैजयंती माला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
श्री बाकें बिहारी लाल की जय

ईश्वर हमारे हो गए तो

एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा..
तब जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु को हाथ लगा दिया वह वस्तु उसकी हो जाएगी..
इस घोषणा को सुनकर सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं अमुक वस्तु को हाथ लगाऊंगा..
कुछ लोग कहने लगे मैं तो स्वर्ण को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कहने लगे कि मैं कीमती जेवरात को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग घोड़ों के शौक़ीन थे और कहने लगे कि मैं तो घोड़ों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग हाथीयों को हाथ लगाने की बात कर रहे थे, कुछ लोग कह रहे थे कि मैं दुधारू गौओं को हाथ लगाऊंगा..
कल्पना कीजिये कैसा
अद्भुत दृश्य होगा वह !!

उसी वक्त महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगाने दौड़े..
सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगा दूँ ताकि वह वस्तु हमेशा के लिए मेरी हो जाएँ और सबके मन में यह डर भी था कि कहीं मुझ से पहले कोई दूसरा मेरी मनपसंद वस्तु को हाथ ना लगा दे..
राजा अपने सिंघासन पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था..
उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी सी लड़की आई और राजा की तरफ बढ़ने लगी..
राजा उस लड़की को देखकर सोच में पढ़ गया और फिर विचार करने लगा कि यह लड़की बहुत छोटी है शायद यह मुझसे कुछ पूछने आ रही है..
वह लड़की धीरे धीरे चलती हुई राजा के पास पहुंची और उसने अपने नन्हे हाथों से राजा को हाथ लगा दिया..
राजा को हाथ लगाते ही राजा उस लड़की का हो गया और राजा की प्रत्येक वस्तु भी उस लड़की की हो गयी..
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जिस प्रकार उन लोगों को राजा ने मौका दिया था और उन लोगों ने गलती की..

ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी हमे हर रोज मौका देता है और हम हर रोज गलती करते है..
हम ईश्वर को पाने की बजाएँ
ईश्वर की बनाई हुई संसारी वस्तुओं
की कामना करते है और
उन्हें प्राप्त करने के लिए यत्न करते है

पर हम कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि ईश्वर हमारे हो गए तो उनकी बनाई हुई प्रत्येक वस्तु भी हमारी हो जाएगी..
ईश्वर को चाहना और
ईश्वर से चाहना..
दोनों में बहुत अंतर है....

कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना

कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए ?
महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुक्षेत्र में युद्ध लड़े जाने का फैसला भगवान श्री कृष्ण का था। लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।
जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।
एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।
इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।
महाभारत की यह कथा इंगित करती है की शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहाँ शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।
राधे राध

वृदांवन के वृक्ष का मर्म

श्री ब्रजमोहन दास जी, वृदावंन के बडे सिद्ध संत है . जिनका पूरा चरित्र जीवन चमत्कारों से भरा है जोकि ब्रज में ही “सूरमा कुंज” में रहा करते थे. क्योंकि भजन में और सदा प्रभु की लीलाओ में मस्त रहते थे. संत की अपनी मस्ती होती है, जिसे किसी से मोह, कोई आसक्तिी नहीं है. ऐसे ही इनके जीवन का एक बडा प्रसंग है. जोकि वृदावंन की महत्वतता को बताता है.कहते है कि जो वृदांवन में शरीर को त्यागता है. तो उन्हें अगला जन्म श्री वृदांवन में ही होता है. और अगर कोई मन में ये सोच ले संकल्प कर ले कि हम वृदावंन जाएगे, और यदि रास्ते में ही मर जाए तो भी उसका अगला जन्म वृदांवन में ही होगा. पर केवल संकल्प मात्र से उसका जन्म श्री धाम में होता हैप्रसंग १-ऐसा ही एक प्रसंग श्री ब्रजमोहन दास जी के सम्मुख घटा. तीन मित्र थे जो युवावस्था में थे तीनों बंग देश के थे. तीनों में बडी गहरी मित्रता थी, तीनो में से एक बहुत सम्पन्न परिवार का था पर उसका मन श्रीधाम वृदांवन में अटका था, एक बार संकल्प किया कि हम श्री धामही जाएगें और माता-पिता के सामने इच्छा रखी कि आगें का जीवन हम वहीं बिताएगें, वहीं पर भजन करेंगे. पर जब वो नहीं माना तो उसके माता-पिता ने कहा - ठीक है बेटा! जब तुम वृदांवन पहुँचोंगे तो प्रतिदिन तुम्हें एक पाव चावल मिल जाएगें जिसे तुम पाकर खा लेना और भजन करना.जब उसके मित्रो ने कहा -कि अगर तुम जाओगे तो हम भी तुम्हारे साथ वृदांवन जाए, तो वो मित्र बोला - कि ठीक है पर तुम लोग क्या खाओगे? मेरे पिता ने तो ऐसी व्यवस्था कर दी है कि मुझे प्रतिदिन एक पाव चावल मिलेगा पर उससे हम तीनों नहीं खा पाएगें. तो उनमें से पहला मित्र बोला - कि तुम जो चावल बनाओगे उससे जों माड निकलेगा मै उससे जीवन यापन कर लूगाँ.दूसरे ने कहा- कि तुम जब चावल धोओगे तो उससे जो पानी निकलेगा तो उसे ही मै पी लूगाँ ऐसी उन दोंनों की वृदावंन के प्रति उत्कुण्ठा थी उन्हें अपने खाने पीने रहने की कोई चिंता नहीं है. तो जब ऐसी इच्छा हो तो ये साक्षात राधारानी जी की कृपा है. तो वो तीनेां अभी किशोर अवस्था में थे.तीनों वृदांवन जाने लगे तो मार्ग में बडा परिश्रम करना पडा और भूख प्यास से तीनों की मृत्यु हो गई और वो वृदांवन नहीं पहुँच पाए. अब जब बहुत दिनों हो गए तीनों की कोई खबर नहीं पहुँची तो घरवालों को बडी चिंता हुई कि उन तीनो में से किसी कि भी खबर नहीं मिली. तो उन लडको के पिता ढूढते वृदांवन आए, पर उनका कोई पता नहीं चला क्योंकि तीनों रास्ते में ही मर चुके थे.तो किसी ने बताया कि आप ब्रजमोहन दास जी के पास जाओ वो बडे सिद्ध संत है. तो उनके पिता ब्रजमोहन दास जी के पास पहुँचे और बोले - कि महाराज हमारे पुत्र कुछ समय पहले वृदांवन के लिए घर से निकले थे पर अब तो उनकी कोई खबर नहीं है. ना वृदांवन में ही किसी को पता है .कुछ देर तक ब्रजमोहन दास जी चुप रहे और बोले -कि आप के तीनों बेटे यमुना जी के तट पर, परिक्रमा मार्ग में वृक्ष बनकर तपस्या कर रहे है . वैराग्य के अनुरूप उन तीनेां को नया जन्म वृदांवन में मिला है. जब वे श्री धामवृंदावन में आ रहे थे तभी रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई थी. और जो वृदावंन का संकल्प कर लेता है. उसका अगला जन्म चाहे पक्षु के रूप या पक्षी के या वृक्ष के रूप मेंवृदांवन में होता है. तो आपके तीनेां बेटे यमुना के किनारे वृक्ष है वहाँ परिक्रमा मार्ग में है. और ये भी बता दिया कि कौन सा किसका बेटा है.बोले कि - जिसने ये कहा था कि मै चावल खाकर रहूगाँ वो“बबूल का पेड”है जिसने ये कहा था कि मै चावल का माड ही खा लूँगा “बेर का वृक्ष”है . जिसने ये कहा था कि चावल केधोने के बाद जो पानी बचेगा उसे ही पी लूँगा तो वो बालक “अश्वथ का वृक्ष”है .उन्हें उन तीनो को ही वृदावंन में जन्म मिल गया उन तीनों का उददेश्य अभी भी चल रहा है. वो अभी भी तप कर रहे है . पर उनके पिता को यकीन नहीं हुआ तो ब्रज मोहन जी उनको यमुना के किनारे ले गए और कहा कि देखोये बबूल का वृक्ष है ये बैर का और येअश्वथका.पर उन लेागों के दिल में सकंल्प की कमी थी तो उनको संत की बातों पर यकीन नहीं किया पर मुहॅ से कुछ नहीं बोले औरउसी रात को वृदांवन मे सो गए थे जब रात में सोए,तब तीनों के तीनों वृक्ष बने बेटे सपने में आए और कहा कि पिताजी जो सूरमा कुंज के संत है श्री ब्रजमोहन दास जी है . वो बडे महापुरूष है उनकी दिव्य दृष्टिी है उनकी बातों पर संदेह नहीं करना वे झूठ नहीं बोलने है और ये राधा जी की कृपा है कि हम तीनों वृदांवन में तप कर रहे है .तो अब तीनेां को विश्वास हो गया और ब्रजमोहन दास जी से क्षमा माँगने लगे कि आप हमें माफ कर दो हमें आपकी बात परसदेंह हो गया था सपने की पूरी बात बता दी तो ब्रज मोहनदास जी ने कहा कि इस में आपकी कोई गलती नहीं है तीनों बडे प्रसन्न मन से अपे घर चले गए.प्रसंग २. -एक संत ब्रजमोहनदास जी के पास आया करते थे श्री रामहरिदास जी, उन्हेंनें पूछाँ कि बाबा लोगों के मुहॅ से हमेशा सुनते आए कि“वृदांवन के वृक्ष को मर्म नाजाने केाय, डाल-डाल और पात-पात श्री राधे राधे होय”तो महाराज क्या वास्तव में ये बात सत्य है . कि वृदावंन का हर वृक्ष राधा-राधा नाम गाता हैब्रजमोहनदास जी ने कहा-क्या तुम ये सुनना या अनुभव करना चाहते हो?तो श्री रामहरिदास जी ने कहा -कि बाबा! कौन नहीं चाहेगा कि साक्षात अनुभव कर ले. और दर्शन भी हो जाए. आपकी कृपा हो जाए, तो हमें तो एक साथ तीनो मिल जायेगे. तो ब्रजमोहन दास जी ने दिव्य दृष्टिी प्रदान कर दी.और कहा -कि मन में संकल्प करो और देखो और सामने"तमाल कावृक्ष"खडा है उसे देखा, तो रामहरिदास जी ने अपने नेत्र खोले तो क्या देखते है कि उस तमाल के वृक्ष के हर पत्ते पर सुनहरे अक्षरों से राधे-राधे लिखा है उस वृक्ष पर लाखों तो पत्ते है. जहाँ जिस पत्ते पर नजर जाती है. उस परराधे राधे लिखा है तो और पत्ते हिलते तो राधे-राधे की ध्वनि निकलती है .तो आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और ब्रजमोहन दास जी के चरणों में गिर पडे और कहा कि बाबा आपकी और राधा जी की कृपा से मैने वृदांवन के वृक्ष का मर्म जान लिया, केाई नहीं जान सकता कि वृदांवन के वृक्ष क्या है? ये हम अपनेशब्दों में बयान नहीं कर सकते ,ये तो केवल संत ही बता सकता है हम साधारण दृष्टिी से देखते है. हमारी द्रष्टि मायिक है, परन्तु संत की द्रष्टि बड़ी उच्च और दिव्य है उन्हें हर डाल, हर पात पर, राधे श्याम देखते है

श्रीकृष्ण का इंद्रजाल



एक गोपी
ब्याह कर बरसाने आयी. अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना न भूली कि वह अकेली कहीं न जाये क्योकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे "इन्द्रजाल" का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे सो तू विशेष सावधानी रखना.

गोपी बोली - " मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे" ?

सास ने कहा - कि सिर पर मोर मुकुट पहिनता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुन्डल हैं, रक्त-चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रंगार उसकी मैया करती है. बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों में काजल की शोभ अनुपम है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करते हैं.

गले में एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है परन्तु उसे गहवर-वन के पुष्प सर्वाधिक प्रिय हैं सो उसके मित्रगण या यहाँ की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक पुष्प-हार का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती हैं; उस पुष्प-हार में बड़े ही सुगंधित दिव्य फ़ूलों का समावेश है जो उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है. अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है. भुज-दंडों पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ शोभायमान रहती हैं. हाथों में मोटे-मोटे चाँदी के कड़ूले और कमर पर पीतांबर के साथ स्वर्ण करधनी शोभा पाती है.

हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है. पक्षी भी उसे मुग्ध से देखते हैं और मोर तो टकटकी लगाकर इस अनुपम "सांवरे सौंन्दर्य" का रसपान करते हैं. इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योकि जो उसे देख ले, उसे फ़िर उसकी वेश-भूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं.

देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है. तुझे स्वस्थ, सानन्द रहना है तो सावधान रहियो. तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह न जाने, यह भी तो संभव नहीं. वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; न जाने उसे "बरसाने" वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है.

सास न चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस "सांवरे" को देखने की इच्छा भी न जगती.सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्र-वधू को "सांवरे" से बचाने के स्थान पर "सांवरे" के साथ ही फ़ँसा दिया है. अब तो एक ही उत्सुकता, लगन कि कब उसे देखूँ. कोई भी पास-पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ. यही आशा कि कब "घर" से निकलूँ और कब "वह" मिलें. कब "साध" पूरी होवे.

लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में न रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं. सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही "अघटन" घटने लगता है. तो भला कैसे न घटता ?

एक दिन "सांकरी खोर" से गुजर रही थी गोपी. सांकरी खोर, पर्वत-श्रंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है. सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र . चंचल नेत्र ? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र "चंचल" हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है जिसके बारे में सुना है कि उसे "नहीं" देखना. नेत्र अब सब समय उसी को खोज रहे हैं, कई बार तो इनकी चंचलता पर "लाज" आ जाती है.

गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन कर्ण-पूटों के माध्यम से ह्रदय में प्रवेश करने लगा. वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही "सांकरी खोर" के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी.

सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी. ह्रदय में संग्राम छिड़ गया . आत्मा-ह्रदय-नेत्र कह रहे हैं कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है. यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह "जादूगर" क्रमश: पास आता जा रहा है.

हाय रे ! कहाँ भागूँ ? वहीं से जाना है और वहीं से "वह" आ रहा है. "वह" जब भी पकड़ता है तो "सांकरी खोर" में ही पकड़ता है, जब आप "अकेले" हों, उसे तब ही "पकड़ने" में आनन्द आता है. क्यों ? क्योंकि यह संबध स्थापित ही तब होगा जब "कोई दूसरा" न हो.

उस नादान को नहीं मालूम कि "जहाँ जाना" है, वह "वहीं" तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो. हाय !कैसा सौंन्दर्य ! कैसे नेत्र ! कैसा दिव्य मुखमंडल ! वह "सांवरा" चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है. सब इस देह को छोड़कर उसमें समा जाना चाहती हैं. हे प्रभु ! सास उचित ही कहतीं थीं. सत्य कहूँ तो कह ही न सकीं; इनके "आकर्षण" की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है. हे जगदीश ! अब तुम ही मुझे बचाओ ! आज अच्छी फ़ँसी !

कन्हैया अब बहुत पास आ गये. जब कोई उपाय न रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रंखला की ओर कर लिया. जब वह स्वयं ही सब कुछ देने को उतारु हों तो कोई बाधा भला रह सकती है. गोपी छुपने की, न देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं.

अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं. गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं. देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है. ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो रहा हैं प्रेम का स्त्रोत जो न जाने कहाँ दबा पड़ा था, आज फ़ूट पड़ा है. गोपी की आत्मा उस रस में स्नान कर रही है, पवित्र हो रही है, परम चेतन से जो मिलना है. सौन्दर्य दैहिक न होकर अलौकिक हो गया है. आत्मा में परमात्मा से मिलन की अभीप्सा जाग उठी है.

श्रीकृष्ण बोले - "चौं री सखी ! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है. तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो !" यह कहते हुए नन्दनन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया. अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी "मटकी" झट से हाथों से फ़ेंक दी "मटकी" फ़ूट गयी [ देह संबध नष्ट हो गया], दही बिखर गया जिसे बड़े परिश्रम से "जमाया" था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था.

दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया. वह कनखियों से देख रही है कि नन्दनन्दन मुस्करा रहे हैं. इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके. देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब न बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे.

कुछ देर मौन पसरा रहा. प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ. अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा. अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया ! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है ! देह तो जड़ हो ही चुकी है. बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है ! रास ! नृत्य ! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है ? है भी कि नहीं ! है कौन ?

सुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारीजन और गोपियाँ घेरे हुए हैं. उसके सिर पर पानी के छींटे डाल रहे हैं. कोई बोली कि - " अम्मा ! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये भूत लग गयो है."

सखी अपनी दूसरी सखी को अपनी आप बीती बता रही है

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जय जय श्री राधे कृष्णा

श्री द्वारकाधीश


जय श्री द्वारकाधीश #

🚩द्वारका गुजरात के जामनगर जिले में स्थित
एक पवित्र नगर है तथा प्रसिद्द हिन्दू तीर्थ स्थान है. पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ पर शासन किया था, इसे भारत के कुछ अति प्राचीन तथा पवित्र नगरों में से एक माना जाता है तथा प्राचीन पुराणों के अनुसार इसे संस्कृत में द्वारावती कहा जाता था. ऐसा कहा जाता है की यह पौराणिक नगर भगवान श्री कृष्ण का निवास स्थान था. माना जाता है की समुद्री विध्वंश तथा अन्य
प्राकृतिक आपदाओं की वजह से द्वारका अब तक छः बार समुद्र में डूब चुकी है तथा

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अभी जो द्वारका नगर उपस्थित है वह सातवीं बार बसाई गई द्वारका है. यह नगर
भगवान श्री विष्णु के 108 दिव्य देसम में से भी एक है.
हिन्दू पुराणों के अनुसार द्वारका सात मोक्षदायी तथा अति पवित्र नगरों में से एक है. गरुड़ पुराण के अनुसार-
अयोध्या,मथुरा, माया, कासी, कांची अवंतिका. पूरी द्वारावती चैव सप्तयिता
मोक्षदायिकाः#
श्री द्वारकाधीश मंदिर-एक परिचय: द्वारकाधीश का वर्तमान मंदिर सोलहवीं
शताब्दी में निर्मित हुआ था, जबकि मूल मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्र ने करवाया था. यह पांच मंजिला मंदिर निर्मित किया गया है. मंदिर के शिखर की ध्वजा प्रतिदीन पांच बार बदली जाती है. मंदिर के दो द्वार हैं स्वर्ग द्वार
जहाँ से दर्शनार्थी भक्त प्रवेश करते हैं तथा दूसरा मोक्ष द्वार जहाँ से भक्त बाहर की ओर निकलते हैं. मंदिर से ही गोमती नदी का समुद्र से संगम देखा जा सकता है. मंदिर के अन्दर भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति है जिसे
राजसी वैवाहिक पोषाक से प्रतिदीन सजाया जाता है.रुक्मणि देवी का मंदिर#
अलग से बनाया गया है जो की बेट द्वारका के रास्ते पर पड़ता है।🚩

🚩🙏जय श्री द्वारकाधीश🙏🚩