Monday 16 November 2015

श्री राधा रानी


एक समय किसी महोत्सव के उपलक्ष्य में बुलाई हुई श्री राधा से यशोदा जी द्वारा अत्यंत आग्रहपूर्वक कुछ पूछने पर, लज्जा के मारे श्री राधा स्वयं उत्तर न देकर ललिता के कानों में धीरे धीरे कुछ कहने लगीं । उनको ऐसा करते देख यशोदा जी कहा - बेटी ! तुम कीर्तिदा की बेटी नहीं, बल्कि मेरी ही कन्या हो - यह सर्वथा सत्य है । श्री कृष्ण, जैसे मेरे प्राणस्वरूप हैं, तुम भी वैसे ही मेरी जीवनस्वरूपा हो; तुम्हे देखकर मुझे वैसा ही आनंद होता है, जैसा श्रीकृष्ण को देखने से; अतएव तुम लज्जा क्यों कर रही हो ? (उज्जवलनीलमणि:
अपराधवशतः दैन्य - एक दिन श्री राधा रानी श्री विशाखा जी को श्री कृष्ण के पास जाने के लिए प्रार्थना कर रहीं थीं, तब विशाखा जी श्री राधा से उलाहना देते हुए कहने लगीं - एक दिन तुम्हारे मानिनी होने पर श्री कृष्ण जब तुम्हारे सामने उपस्थित हुए और तुम्हारे चरणों में बारम्बार प्रणामकर अपने अपराध को क्षमा करने के लिए प्रार्थना करने लगे । उसी समय मैंने आपसे कहा - "हे सखी ! ये कान्त हमारे कोटि कोटि प्राणों की अपेक्षा भी अत्यंत प्रिय हैं । इन्होने केवल मात्र एक बार अपराध किया है । अतः इन्हें क्षमा कर दो" मेरे ऐसा कहने पर तुमने मुझसे कहा था - हे दुर्बुद्धि विशाखे ! तुम यहाँ से दूर चली जाओ । इस प्रकार तिरस्कार पूर्वक मुझे दूर भगा दिया था । अब, वही तुम, क्यों स्वयं मेरे निकट आकर मुझसे उन्हें प्रसन्नकर बुलाने के लिए आग्रह कर रही हो ? ऐसा सुनकर श्री राधा बड़ी नम्रतापूर्वक बोलीं - "सखी ! यद्यपि मैंने यथार्थ रूप में अपराध किया है तथापि इस विषय में मेरा क्या दोष है ? अर्थात मेरा दोष नहीं । उस समय मानरूपी सर्पिणी ने मुझे दंशन किया था । जैसा भी हो, हे सुन्दरि ! तुम मेरे दोषों के प्रति दृष्टिपात मत करो । शिखपिच्छमौलि से ऐसा अनुनय विनय करना कि वे मेरे प्रति विमुख न हों ॥
नित्य गौलोक धाम की लीलाएं साधारण नहीं हैं और उन लीलाओं को सुनना और उनका रसास्वादन करना उन लीलाओं को जाग्रत कर देता है, लेकिन वहां जो प्रधान है वह भाव है, यदि भाव नहीं है तो फिर वह कहानी की तरह हैं । सांसारिक भोगों में रहते हुए भी जो सद्ग्रहस्त भगवान की इन दिव्यातिदिव्य लीलाओं को सुने और भाव को प्रधानता देते हुए उसमें प्रवेश करने का प्रयास करे तो निश्चित ही श्यामा श्याम के दर्शनों की अनुभूति होगी ऐसा मे

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