Wednesday 18 November 2015

श्री राधा का विशुद्ध प्रेम

एक बार किसी ने श्री राधा के पास आकर श्री कृष्ण के स्वरुप र्सोंदर्य का और सद्गुणों का अभाव बतलाया और कहा कि - वे तुमसे प्रेम नही करते|
श्री राधा जी सर्वश्रेष्ठ विशुद्ध प्रेम की संपूर्ण प्रतिमा है अतः वे बोलीं:-
''असुंदरः सुंदरशेखरो वा गुणैविहीनो गुणीनां वरो वा द्वेषी मयि स्यात करूणाम्बुधिर्वा श्यामःस एवाघ गतिर्ममायम''

अर्थात - हमारे प्रियतम श्री कृष्ण असुंदर हो सुंदर शिरोमणि हो, गुणहीन हो या गुणियों में श्रेष्ठ ,मेरे प्रति द्वेष रखते हो या करूणा वरूणावलय रूप से कृपा करते हो, वे श्यामसुंदर ही मेरी एकमात्र गति हैं ...
महाप्रभु ने भी कहा है – वे चाहे मुझे हृदय से लगा ले या मुझको पैरों तले रौद डाले अथवा दर्शन से वंचित रख मर्मार्हत कर दे|
वे जैसे चाहे वैसे करे
मेरे प्राणनाथ तो वे ही है दूसरा कोई नही |

जैसे चातक होता है वह केवल एक मेघ से ही स्वाति की बूँद चाहता है न दूसरे की ओर ताकता है, न दूसरा जल स्पर्श करता है |
चातक कहता क्या है - चाहे तुम ठीक समय पर बरसो, चाहे जीवनभर कभी ना बरसो ,परन्तु इस चित्त चातक को केवल तुम्हारी आशा है,
अपने प्यारे मेघ का नाम रटते- रटते चातक की जीभ लट गई और प्यास के मारे अंग सुख गए, तो भी चातक के प्रेम का रंग तो नित्य नवीन और सुंदर ही होता जाता है ,
समय पर मेघ बरसता तो नही , उलटे कठोर पत्थर, ओले बरसाकर, उसने चातक की पंखो के टुकड़े - टुकड़े कर दिए, इतने पर भी प्रेम टेकी चातक के प्रेम प्रण में कभी चूक नहीं पड़ती |

मेघ बिजली गिराकर, ओले बरसाकर, और तूफान के झकोरे देकर ,चातक पर चाहे जितना बड़ा भारी रोष प्रकट करे पर चातक को प्रियतम का दोष देखकर क्रोध नही आता ,उसे दोष दीखता ही नही है |
गर्मियों के दिन थे, चातक शरीर से थका था, रास्ते में जा रहा था, शरीर जल रहा था, इतने में कुछ वृक्ष दिखायी दिये, दूसरे पक्षियों ने कहा इन पर जरा विश्राम कर लो परन्तु अनन्य प्रेमी चातक को यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि वे वृक्ष दूसरे जल से सीचे हुए थे|
एक चातक उड़ा जा रहा था किसी बहेलिये ने उसे तीर मारा वह गंगा जी में गिर पड़ा, परन्तु गिरते ही उस अनन्य प्रेमी चातक ने चोच को उलटकर ऊपर की ओर कर लिया |
चातक के प्रेम रूपी वस्त्र पर मरते दम तक भी खोच तक नही लगी |
विशुद्ध प्रेम रुप, गुण और बदले में सुख प्राप्त करने कि अपेक्षा नहीं करता,
''गुणरहितं कामना रहितं'' और वह बिना किसी हेतु के ही प्रतिक्षण सहज ही बढ़ता रहता है

''प्रतिक्षण वर्धमानम्''
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प्रेम से कहिये。。。

श्री राधे! श्री राधे!!
श्री राधे!! श्री राधे!

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