Monday 16 November 2015

गीता के भावो में ध्यान मग्न काशी नरेश के जीवन की एक घटना



गीता के भावो में ध्यान मग्न काशी नरेश के जीवन की एक घटना
सन् १९१० में काशी नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह बहादुर का एक ऑपरेशन हुआ। पाँच डाक्‍टर यूरोप से ऑपरेशन के लिए आए। पर काशी नरेश ने कहा कि मैं किसी प्रकार का मादक द्रव नहीं ले सकता। क्‍योंकि मैंने मादक द्रव्‍य लेना छोड़ दिया है। इसलिए मैं किसी भी तरह का मादक पदार्थयुक्त बेहोश करने वाली कोई दवा, कोई इंजेक्‍शन भी नहीं ले सकता, क्‍योंकि मादक द्रव मैंने त्‍याग दिये है। न मैं शराब पीता हूं, न सिगरेट पीता हूं, मैं चाय भी नहीं पीता। इसलिए ऑपरेशन तो आप करें लेकिन बिना ऐसे पदार्थों के उपयोग के ।
डॉक्टरों ने कहा-अपेंडिक्‍स का ऑपरेशन है। बड़ा ऑपरेशन होगा कैसे? इतनी भयंकर पीड़ा होगी, और आप चीखे-चिल्‍लाए, उछलने-कूदने लगे तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। आप सह नहीं पाएंगे।" उन्‍होंने कहा कि नहीं, मैं सह पाऊंगा। बस इतनी ही मुझे आज्ञा दें कि मैं अपना गीता का पाठ करता रहूँ। डॉक्टरो ने प्रयोग करके देखा । पहले उँगली काटी, तकलीफ़ें दीं, सूइयाँ चुभायीं, और उनसे कहा कि आप अपना गीता पाठ करते रहे।
कोई दर्द का उन्‍हें पता न चला। फिर ऑपरेशन भी किया गया। वह पहला ऑपरेशन था पूरे मनुष्‍य जाति के इतिहास में, जिसमें किसी तरह के मादक-द्रव्‍य का कोई प्रयोग नहीं किया गया। काशी नरेश पूरे होश में रहे। ऑपरेशन हुआ। डाक्‍टर तो भरोसा न कर सके। जैसे कि लाश पड़ी हो सामने, जिंदा आदमी है कि मुर्दा आदमी हो।
ऑपरेशन के बाद उन्‍होंने पूछा कि यह चमत्‍कार है, आपने किया क्‍या? उन्‍होंने कहा, मैंने कुछ भी नहीं किया। मैं सिर्फ होश संभाले रखा और गीता पढ़ते रहा । इसे जन्‍म भर से पढ़ रहा हूँ और जब मैं गीता पढ़ता हूं फिर मेरे चारों और क्‍या हो रहा इस की मुझे कुछ फिकर नहीं रहती है। मैं तो स्‍वय में डूब जाता हूं। और एक दीपक जलता रहता है बाहर। और मैं अपने होश को मात्र संभाले रहता हूं और यही पाठ का अर्थ होता है। गीता के पाठ से मुझे होश बनता है, जागृति आती है।
बस उसका मैं पाठ करता रहा । जब तक मुझसे भूल चुक नहीं होती तो मैं उसे दोहराता रहूँ तो फिर शरीर मुझसे अलग है।
" न हन्यते हन्‍यमाने शरीरे" तब मैं जानता हूं कि शरीर को काटो, मारो, तो भी तुम मुझे नहीं मार सकते। "नैनं छिंदंति शस्‍त्राणि" तुम छेदों इसे शस्‍त्रों से फिर भी तुम मुझे नहीं छेद सकते हो। बस इतनी मुझे याद बनी रही, उतना काफी था, मैं शरीर नहीं हूं।

हां, अगर मैं गीता न पढ़ता होता तो भूल-चूक हो सकती थी। अभी मेरा होश इतना नहीं है कि सहारे के बिना सध जाए। पाठ का यही अर्थ होता है। अध्‍ययन पाठ का अर्थ है, गीता को मस्‍तिष्‍क से नहीं पढ़ना, गीता को बोध से पढ़ना और गीता पढ़ते वक्‍त गीता जो कह रही है उसके बोध को संभालना। निरंतर-निरंतर अभ्‍यास करने से, बोध संभल जाता है। ।

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