Wednesday 18 November 2015

bhajan

ज़री की पगड़ी बाँधे, सुंदर आँखों
वाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ।
ज़री की पगड़ी बाँधे...
कानों में कुण्डल साजे, सिर मोर मुकुट विराजे,
सखियाँ पगली होती, जब - जब होठों पे
बंशी बाजे ।
हैं चंदा यह सांवरा, तारे हैं ग्वाल बाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
लट घुँघरे बाल, तेरे कारे कारे बाल,
सुन्दर श्याम सलोना तेरी टेडी मेडी
चाल ।
हवा में सर - सर करता तेरा पीताम्बर मतवाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा
मुख पे माखन मलता, तू बल घुटने के चलता,
देख यशोदा भाग्य को देवों का मन जलता ।
माथे पे तिलक सोहे आँखों में काज़ल डारा,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
तू जब बंशी बजाए तब मोर भी नाच दिखाए,
यमुना में लहरें उठती और कोयल भी कू - कू गाए ।
हाथ में कँगन पहने और गल वैजयंती माला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा ॥
श्री बाकें बिहारी लाल की जय

ईश्वर हमारे हो गए तो

एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा..
तब जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु को हाथ लगा दिया वह वस्तु उसकी हो जाएगी..
इस घोषणा को सुनकर सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं अमुक वस्तु को हाथ लगाऊंगा..
कुछ लोग कहने लगे मैं तो स्वर्ण को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कहने लगे कि मैं कीमती जेवरात को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग घोड़ों के शौक़ीन थे और कहने लगे कि मैं तो घोड़ों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग हाथीयों को हाथ लगाने की बात कर रहे थे, कुछ लोग कह रहे थे कि मैं दुधारू गौओं को हाथ लगाऊंगा..
कल्पना कीजिये कैसा
अद्भुत दृश्य होगा वह !!

उसी वक्त महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगाने दौड़े..
सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगा दूँ ताकि वह वस्तु हमेशा के लिए मेरी हो जाएँ और सबके मन में यह डर भी था कि कहीं मुझ से पहले कोई दूसरा मेरी मनपसंद वस्तु को हाथ ना लगा दे..
राजा अपने सिंघासन पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था..
उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी सी लड़की आई और राजा की तरफ बढ़ने लगी..
राजा उस लड़की को देखकर सोच में पढ़ गया और फिर विचार करने लगा कि यह लड़की बहुत छोटी है शायद यह मुझसे कुछ पूछने आ रही है..
वह लड़की धीरे धीरे चलती हुई राजा के पास पहुंची और उसने अपने नन्हे हाथों से राजा को हाथ लगा दिया..
राजा को हाथ लगाते ही राजा उस लड़की का हो गया और राजा की प्रत्येक वस्तु भी उस लड़की की हो गयी..
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जिस प्रकार उन लोगों को राजा ने मौका दिया था और उन लोगों ने गलती की..

ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी हमे हर रोज मौका देता है और हम हर रोज गलती करते है..
हम ईश्वर को पाने की बजाएँ
ईश्वर की बनाई हुई संसारी वस्तुओं
की कामना करते है और
उन्हें प्राप्त करने के लिए यत्न करते है

पर हम कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि ईश्वर हमारे हो गए तो उनकी बनाई हुई प्रत्येक वस्तु भी हमारी हो जाएगी..
ईश्वर को चाहना और
ईश्वर से चाहना..
दोनों में बहुत अंतर है....

कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना

कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए ?
महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुक्षेत्र में युद्ध लड़े जाने का फैसला भगवान श्री कृष्ण का था। लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।
जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।
एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।
इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।
महाभारत की यह कथा इंगित करती है की शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहाँ शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।
राधे राध

वृदांवन के वृक्ष का मर्म

श्री ब्रजमोहन दास जी, वृदावंन के बडे सिद्ध संत है . जिनका पूरा चरित्र जीवन चमत्कारों से भरा है जोकि ब्रज में ही “सूरमा कुंज” में रहा करते थे. क्योंकि भजन में और सदा प्रभु की लीलाओ में मस्त रहते थे. संत की अपनी मस्ती होती है, जिसे किसी से मोह, कोई आसक्तिी नहीं है. ऐसे ही इनके जीवन का एक बडा प्रसंग है. जोकि वृदावंन की महत्वतता को बताता है.कहते है कि जो वृदांवन में शरीर को त्यागता है. तो उन्हें अगला जन्म श्री वृदांवन में ही होता है. और अगर कोई मन में ये सोच ले संकल्प कर ले कि हम वृदावंन जाएगे, और यदि रास्ते में ही मर जाए तो भी उसका अगला जन्म वृदांवन में ही होगा. पर केवल संकल्प मात्र से उसका जन्म श्री धाम में होता हैप्रसंग १-ऐसा ही एक प्रसंग श्री ब्रजमोहन दास जी के सम्मुख घटा. तीन मित्र थे जो युवावस्था में थे तीनों बंग देश के थे. तीनों में बडी गहरी मित्रता थी, तीनो में से एक बहुत सम्पन्न परिवार का था पर उसका मन श्रीधाम वृदांवन में अटका था, एक बार संकल्प किया कि हम श्री धामही जाएगें और माता-पिता के सामने इच्छा रखी कि आगें का जीवन हम वहीं बिताएगें, वहीं पर भजन करेंगे. पर जब वो नहीं माना तो उसके माता-पिता ने कहा - ठीक है बेटा! जब तुम वृदांवन पहुँचोंगे तो प्रतिदिन तुम्हें एक पाव चावल मिल जाएगें जिसे तुम पाकर खा लेना और भजन करना.जब उसके मित्रो ने कहा -कि अगर तुम जाओगे तो हम भी तुम्हारे साथ वृदांवन जाए, तो वो मित्र बोला - कि ठीक है पर तुम लोग क्या खाओगे? मेरे पिता ने तो ऐसी व्यवस्था कर दी है कि मुझे प्रतिदिन एक पाव चावल मिलेगा पर उससे हम तीनों नहीं खा पाएगें. तो उनमें से पहला मित्र बोला - कि तुम जो चावल बनाओगे उससे जों माड निकलेगा मै उससे जीवन यापन कर लूगाँ.दूसरे ने कहा- कि तुम जब चावल धोओगे तो उससे जो पानी निकलेगा तो उसे ही मै पी लूगाँ ऐसी उन दोंनों की वृदावंन के प्रति उत्कुण्ठा थी उन्हें अपने खाने पीने रहने की कोई चिंता नहीं है. तो जब ऐसी इच्छा हो तो ये साक्षात राधारानी जी की कृपा है. तो वो तीनेां अभी किशोर अवस्था में थे.तीनों वृदांवन जाने लगे तो मार्ग में बडा परिश्रम करना पडा और भूख प्यास से तीनों की मृत्यु हो गई और वो वृदांवन नहीं पहुँच पाए. अब जब बहुत दिनों हो गए तीनों की कोई खबर नहीं पहुँची तो घरवालों को बडी चिंता हुई कि उन तीनो में से किसी कि भी खबर नहीं मिली. तो उन लडको के पिता ढूढते वृदांवन आए, पर उनका कोई पता नहीं चला क्योंकि तीनों रास्ते में ही मर चुके थे.तो किसी ने बताया कि आप ब्रजमोहन दास जी के पास जाओ वो बडे सिद्ध संत है. तो उनके पिता ब्रजमोहन दास जी के पास पहुँचे और बोले - कि महाराज हमारे पुत्र कुछ समय पहले वृदांवन के लिए घर से निकले थे पर अब तो उनकी कोई खबर नहीं है. ना वृदांवन में ही किसी को पता है .कुछ देर तक ब्रजमोहन दास जी चुप रहे और बोले -कि आप के तीनों बेटे यमुना जी के तट पर, परिक्रमा मार्ग में वृक्ष बनकर तपस्या कर रहे है . वैराग्य के अनुरूप उन तीनेां को नया जन्म वृदांवन में मिला है. जब वे श्री धामवृंदावन में आ रहे थे तभी रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई थी. और जो वृदावंन का संकल्प कर लेता है. उसका अगला जन्म चाहे पक्षु के रूप या पक्षी के या वृक्ष के रूप मेंवृदांवन में होता है. तो आपके तीनेां बेटे यमुना के किनारे वृक्ष है वहाँ परिक्रमा मार्ग में है. और ये भी बता दिया कि कौन सा किसका बेटा है.बोले कि - जिसने ये कहा था कि मै चावल खाकर रहूगाँ वो“बबूल का पेड”है जिसने ये कहा था कि मै चावल का माड ही खा लूँगा “बेर का वृक्ष”है . जिसने ये कहा था कि चावल केधोने के बाद जो पानी बचेगा उसे ही पी लूँगा तो वो बालक “अश्वथ का वृक्ष”है .उन्हें उन तीनो को ही वृदावंन में जन्म मिल गया उन तीनों का उददेश्य अभी भी चल रहा है. वो अभी भी तप कर रहे है . पर उनके पिता को यकीन नहीं हुआ तो ब्रज मोहन जी उनको यमुना के किनारे ले गए और कहा कि देखोये बबूल का वृक्ष है ये बैर का और येअश्वथका.पर उन लेागों के दिल में सकंल्प की कमी थी तो उनको संत की बातों पर यकीन नहीं किया पर मुहॅ से कुछ नहीं बोले औरउसी रात को वृदांवन मे सो गए थे जब रात में सोए,तब तीनों के तीनों वृक्ष बने बेटे सपने में आए और कहा कि पिताजी जो सूरमा कुंज के संत है श्री ब्रजमोहन दास जी है . वो बडे महापुरूष है उनकी दिव्य दृष्टिी है उनकी बातों पर संदेह नहीं करना वे झूठ नहीं बोलने है और ये राधा जी की कृपा है कि हम तीनों वृदांवन में तप कर रहे है .तो अब तीनेां को विश्वास हो गया और ब्रजमोहन दास जी से क्षमा माँगने लगे कि आप हमें माफ कर दो हमें आपकी बात परसदेंह हो गया था सपने की पूरी बात बता दी तो ब्रज मोहनदास जी ने कहा कि इस में आपकी कोई गलती नहीं है तीनों बडे प्रसन्न मन से अपे घर चले गए.प्रसंग २. -एक संत ब्रजमोहनदास जी के पास आया करते थे श्री रामहरिदास जी, उन्हेंनें पूछाँ कि बाबा लोगों के मुहॅ से हमेशा सुनते आए कि“वृदांवन के वृक्ष को मर्म नाजाने केाय, डाल-डाल और पात-पात श्री राधे राधे होय”तो महाराज क्या वास्तव में ये बात सत्य है . कि वृदावंन का हर वृक्ष राधा-राधा नाम गाता हैब्रजमोहनदास जी ने कहा-क्या तुम ये सुनना या अनुभव करना चाहते हो?तो श्री रामहरिदास जी ने कहा -कि बाबा! कौन नहीं चाहेगा कि साक्षात अनुभव कर ले. और दर्शन भी हो जाए. आपकी कृपा हो जाए, तो हमें तो एक साथ तीनो मिल जायेगे. तो ब्रजमोहन दास जी ने दिव्य दृष्टिी प्रदान कर दी.और कहा -कि मन में संकल्प करो और देखो और सामने"तमाल कावृक्ष"खडा है उसे देखा, तो रामहरिदास जी ने अपने नेत्र खोले तो क्या देखते है कि उस तमाल के वृक्ष के हर पत्ते पर सुनहरे अक्षरों से राधे-राधे लिखा है उस वृक्ष पर लाखों तो पत्ते है. जहाँ जिस पत्ते पर नजर जाती है. उस परराधे राधे लिखा है तो और पत्ते हिलते तो राधे-राधे की ध्वनि निकलती है .तो आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और ब्रजमोहन दास जी के चरणों में गिर पडे और कहा कि बाबा आपकी और राधा जी की कृपा से मैने वृदांवन के वृक्ष का मर्म जान लिया, केाई नहीं जान सकता कि वृदांवन के वृक्ष क्या है? ये हम अपनेशब्दों में बयान नहीं कर सकते ,ये तो केवल संत ही बता सकता है हम साधारण दृष्टिी से देखते है. हमारी द्रष्टि मायिक है, परन्तु संत की द्रष्टि बड़ी उच्च और दिव्य है उन्हें हर डाल, हर पात पर, राधे श्याम देखते है

श्रीकृष्ण का इंद्रजाल



एक गोपी
ब्याह कर बरसाने आयी. अपने घर-परिवार के संस्कार और परंपरा बताते हुए उसकी सास यह कहना न भूली कि वह अकेली कहीं न जाये क्योकि यहाँ नन्दगाँव के नन्दजी का बेटा घूमता रहता है और छोटी सी उम्र में ही उसे "इन्द्रजाल" का ऐसा ज्ञान है कि जो उसे देख ले, सुध-बुध खो बैठे सो तू विशेष सावधानी रखना.

गोपी बोली - " मैया ! मैं उसे पहिचानूंगी कैसे" ?

सास ने कहा - कि सिर पर मोर मुकुट पहिनता है, घुंघराली अलकावलियाँ हैं, कानों में कुन्डल हैं, रक्त-चंदन का तिलक और मुख पर चंदन का ही श्रंगार उसकी मैया करती है. बड़े-बड़े सम्मोहित करने वाले नेत्रों में काजल की शोभ अनुपम है, माथे के बायीं ओर बुरी नजर से बचने के लिये डिठौना लगा होता है, काँधे तक फ़ैली उसकी केशराशि पवन का साथ पाकर जब फ़हराती है तो वह अपने सुन्दर कोमल हाथों से उसे ठीक करते हैं.

गले में एक स्वर्ण-हार और एक मोतियों का हार है परन्तु उसे गहवर-वन के पुष्प सर्वाधिक प्रिय हैं सो उसके मित्रगण या यहाँ की गोपियाँ नित्य ही उसके लिये एक पुष्प-हार का सृजन करती है और वह उसे धारण कराती हैं; उस पुष्प-हार में बड़े ही सुगंधित दिव्य फ़ूलों का समावेश है जो उस छलिये के आने की पूर्व-सूचना देने में सक्षम है. अनावृत वक्ष पर वह पटुका डाले रहता है. भुज-दंडों पर भी चंदन से बनी सुन्दर कलाकृतियाँ शोभायमान रहती हैं. हाथों में मोटे-मोटे चाँदी के कड़ूले और कमर पर पीतांबर के साथ स्वर्ण करधनी शोभा पाती है.

हाथ में बंसी लिये बड़ी ही अलमस्त चाल से चलता है, कभी किसी गोपी को छेड़े तो कभी लता-पताओं से बातें भी करता है. पक्षी भी उसे मुग्ध से देखते हैं और मोर तो टकटकी लगाकर इस अनुपम "सांवरे सौंन्दर्य" का रसपान करते हैं. इससे अधिक मेरी भी स्मृति नहीं क्योकि जो उसे देख ले, उसे फ़िर उसकी वेश-भूषा की भी स्मृति रह पाये, यह संभव ही नहीं.

देखने वाले को तो केवल उसका मुख और उसके नेत्र ही स्मृति में रहते हैं और उन नेत्रों में ही मानो समस्त अस्तित्व डूबा जाता है. तुझे स्वस्थ, सानन्द रहना है तो सावधान रहियो. तू सावधान रहेगी तब भी आशंका तो बनी ही रहेगी क्योंकि बरसाने में कुछ हो और वह न जाने, यह भी तो संभव नहीं. वह स्वयं कहाँ मानने वाला है; न जाने उसे "बरसाने" वालों से ऐसी छेड़-छाड़ में क्या आनन्द आता है.

सास न चेताती तो संभवत: नयी ब्याहता गोपी के मन में इतनी तीव्रता से उस "सांवरे" को देखने की इच्छा भी न जगती.सास नहीं जानती कि उसने अपनी पुत्र-वधू को "सांवरे" से बचाने के स्थान पर "सांवरे" के साथ ही फ़ँसा दिया है. अब तो एक ही उत्सुकता, लगन कि कब उसे देखूँ. कोई भी पास-पड़ोस का कार्य हो तो वधू कहे कि आप बैठें, मैं करती हूँ. यही आशा कि कब "घर" से निकलूँ और कब "वह" मिलें. कब "साध" पूरी होवे.

लक्ष्य के अतिरिक्त जब अन्य कुछ भी स्मृति में न रह जाये तो दैव और प्रकृति सभी आपके साथ हो जाते हैं. सारी परिस्थितियाँ आपके अनुकूल होने लगतीं हैं; अनायास ही "अघटन" घटने लगता है. तो भला कैसे न घटता ?

एक दिन "सांकरी खोर" से गुजर रही थी गोपी. सांकरी खोर, पर्वत-श्रंखला के मध्य ऐसा स्थान है, जहाँ से एक ही व्यक्ति एक बार में गुजर सकता है. सर पर दही की मटकी, मुख पर घूँघट का आवरण और झीने आवरण के भीतर से चमकते दो चंचल नेत्र . चंचल नेत्र ? अतिशय सौंन्दर्य को देखने की अभिलाषा में नेत्र "चंचल" हो गये हैं, उन्हें तो अब वही देखना है जिसके बारे में सुना है कि उसे "नहीं" देखना. नेत्र अब सब समय उसी को खोज रहे हैं, कई बार तो इनकी चंचलता पर "लाज" आ जाती है.

गोपी सांकरी खोर के मध्य ही पहुँची थी कि सम्मोहित करने वाला वेणु-नाद उसके कानों में पड़ने लगा और कानों में ही नहीं वरन कर्ण-पूटों के माध्यम से ह्रदय में प्रवेश करने लगा. वह रुकी और चलायमान नेत्रों ने अपना कार्य आरंभ किया कि कहाँ खोजें और क्षणार्ध में ही "सांकरी खोर" के दूसरे छोर पर, जहाँ से गोपी को जाना था, उसकी छवि प्रकट होने लगी.

सामने से पड़ते सूर्य के प्रकाश के कारण वह स्पष्ट तो नहीं देख पा रही परन्तु अपनी सास की चेतावनी मस्तिष्क में कौंध गयी. ह्रदय में संग्राम छिड़ गया . आत्मा-ह्रदय-नेत्र कह रहे हैं कि देखना है और बुद्धि कह रही है कि नहीं, सास ने मना किया है. यहाँ तो संग्राम छिड़ा है, उधर वह "जादूगर" क्रमश: पास आता जा रहा है.

हाय रे ! कहाँ भागूँ ? वहीं से जाना है और वहीं से "वह" आ रहा है. "वह" जब भी पकड़ता है तो "सांकरी खोर" में ही पकड़ता है, जब आप "अकेले" हों, उसे तब ही "पकड़ने" में आनन्द आता है. क्यों ? क्योंकि यह संबध स्थापित ही तब होगा जब "कोई दूसरा" न हो.

उस नादान को नहीं मालूम कि "जहाँ जाना" है, वह "वहीं" तो है; वही तो लक्ष्य है, तुम जानो या न जानो, मानो या न मानो. हाय !कैसा सौंन्दर्य ! कैसे नेत्र ! कैसा दिव्य मुखमंडल ! वह "सांवरा" चुंबक की तरह अपनी ओर बलात ही खींच रहा है, चित्त अब वश में नहीं, सारी इन्द्रियों ने मानो विद्रोह कर दिया है. सब इस देह को छोड़कर उसमें समा जाना चाहती हैं. हे प्रभु ! सास उचित ही कहतीं थीं. सत्य कहूँ तो कह ही न सकीं; इनके "आकर्षण" की क्षमता का वर्णन कहाँ संभव है. हे जगदीश ! अब तुम ही मुझे बचाओ ! आज अच्छी फ़ँसी !

कन्हैया अब बहुत पास आ गये. जब कोई उपाय न रहा तो गोपी ने मुँह घुमाकर पर्वत-श्रंखला की ओर कर लिया. जब वह स्वयं ही सब कुछ देने को उतारु हों तो कोई बाधा भला रह सकती है. गोपी छुपने की, न देखने की, बचने की निरर्थक चेष्टा कर रही है और वह मुस्करा रहे हैं.

अब वे एकदम पास आकर खड़े हैं. गोपी घूँघट में से देख रही है कि वह इधर-उधर घूमकर उसका मुखड़ा देखना चाहते हैं और बात करना चाहते हैं. देह जड़ हो गयी है; सामने जो आवरण में से दिख रहा है, वह लौकिक नहीं है. ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो रहा हैं प्रेम का स्त्रोत जो न जाने कहाँ दबा पड़ा था, आज फ़ूट पड़ा है. गोपी की आत्मा उस रस में स्नान कर रही है, पवित्र हो रही है, परम चेतन से जो मिलना है. सौन्दर्य दैहिक न होकर अलौकिक हो गया है. आत्मा में परमात्मा से मिलन की अभीप्सा जाग उठी है.

श्रीकृष्ण बोले - "चौं री सखी ! तू तो बरसाने में कछु नयी सी लग रही है. तोकूँ पहलै कबहुँ नाँय देखो !" यह कहते हुए नन्दनन्दन ने गोपी के कर का स्पर्श कर दिया. अचकचा गयी गोपी और उसने सिर पर रखी "मटकी" झट से हाथों से फ़ेंक दी "मटकी" फ़ूट गयी [ देह संबध नष्ट हो गया], दही बिखर गया जिसे बड़े परिश्रम से "जमाया" था, अब वह किसी कार्य का नहीं रह गया था.

दोनों हाथों से उसने अपने मुख को ढक लिया. वह कनखियों से देख रही है कि नन्दनन्दन मुस्करा रहे हैं. इतनी क्षमता भी नहीं बची कि भाग पाये, उन्होंने रास्ता ही तो रोक लिया है, अब अन्य कोई मार्ग बचा ही नहीं है कि उनसे बिना मिले, बिना दृष्टि मिलाये, बिना अनुमति माँगे कहीं जाया जा सके. देर हो रही है और यह मानते नहीं, कुछ देर मौन खड़ी रहती हूँ, जब न बोलूँगी तो अपने-आप चले जावेंगे.

कुछ देर मौन पसरा रहा. प्रतीत होता है कि वह किशोर जा चुका है, अच्छा, अब नेत्र खोलूँ. अचानक ही खिलखिलाकर हँसने का शब्द हुआ और गोपी ने चौंककर, मुड़कर, नेत्र खोल सामने देखा. अब जो देखा तो नेत्रों का होना सफ़ल हो गया ! नेत्र उस रस को पी रहे हैं और आत्मा तृप्त हो रही है ! देह तो जड़ हो ही चुकी है. बूँद, सागर को पीना चाहती है, सागर बूँद को अपना रहा है ! रास ! नृत्य ! गोपी बेसुध हो रही है; नहीं जानती, वह कहाँ है ? है भी कि नहीं ! है कौन ?

सुध आयी तो देखा कि घर में शय्या पर है और चारों ओर से उसके परिवारीजन और गोपियाँ घेरे हुए हैं. उसके सिर पर पानी के छींटे डाल रहे हैं. कोई बोली कि - " अम्मा ! तुमने नयी-नवेली बहू अकेली चौं भेजी, मोय तो लगे कि जाये भूत लग गयो है."

सखी अपनी दूसरी सखी को अपनी आप बीती बता रही है

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जय जय श्री राधे कृष्णा

श्री द्वारकाधीश


जय श्री द्वारकाधीश #

🚩द्वारका गुजरात के जामनगर जिले में स्थित
एक पवित्र नगर है तथा प्रसिद्द हिन्दू तीर्थ स्थान है. पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ पर शासन किया था, इसे भारत के कुछ अति प्राचीन तथा पवित्र नगरों में से एक माना जाता है तथा प्राचीन पुराणों के अनुसार इसे संस्कृत में द्वारावती कहा जाता था. ऐसा कहा जाता है की यह पौराणिक नगर भगवान श्री कृष्ण का निवास स्थान था. माना जाता है की समुद्री विध्वंश तथा अन्य
प्राकृतिक आपदाओं की वजह से द्वारका अब तक छः बार समुद्र में डूब चुकी है तथा

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अभी जो द्वारका नगर उपस्थित है वह सातवीं बार बसाई गई द्वारका है. यह नगर
भगवान श्री विष्णु के 108 दिव्य देसम में से भी एक है.
हिन्दू पुराणों के अनुसार द्वारका सात मोक्षदायी तथा अति पवित्र नगरों में से एक है. गरुड़ पुराण के अनुसार-
अयोध्या,मथुरा, माया, कासी, कांची अवंतिका. पूरी द्वारावती चैव सप्तयिता
मोक्षदायिकाः#
श्री द्वारकाधीश मंदिर-एक परिचय: द्वारकाधीश का वर्तमान मंदिर सोलहवीं
शताब्दी में निर्मित हुआ था, जबकि मूल मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्र ने करवाया था. यह पांच मंजिला मंदिर निर्मित किया गया है. मंदिर के शिखर की ध्वजा प्रतिदीन पांच बार बदली जाती है. मंदिर के दो द्वार हैं स्वर्ग द्वार
जहाँ से दर्शनार्थी भक्त प्रवेश करते हैं तथा दूसरा मोक्ष द्वार जहाँ से भक्त बाहर की ओर निकलते हैं. मंदिर से ही गोमती नदी का समुद्र से संगम देखा जा सकता है. मंदिर के अन्दर भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति है जिसे
राजसी वैवाहिक पोषाक से प्रतिदीन सजाया जाता है.रुक्मणि देवी का मंदिर#
अलग से बनाया गया है जो की बेट द्वारका के रास्ते पर पड़ता है।🚩

🚩🙏जय श्री द्वारकाधीश🙏🚩

(((((((((( सुखों की परछाई ))))))))))


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एक रानी अपने गले का हीरों का हार निकाल कर खूंटी पर टांगने वाली ही थी कि एक बाज आया और झपटा मारकर हार ले उड़ा.
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चमकते हीरे देखकर बाज ने सोचा कि खाने की कोई चीज हो. वह एक पेड़ पर जा बैठा और खाने की कोशिश करने लगा.
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हीरे तो कठोर होते हैं. उसने चोंच मारा तो दर्द से कराह उठा. उसे समझ में आ गया कि यह उसके काम की चीज नहीं. वह हार को उसी पेड़ पर लटकता छोड़ उड़ गया.
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रानी को वह हार प्राणों सा प्यारा था. उसने राजा से कह दिया कि हार का तुरंत पता लगवाइए वरना वह खाना-पीना छोड़ देगी. राजा ने कहा कि दूसरा हार बनवा देगा लेकिन उसने जिद पकड़ ली कि उसे वही हार चाहिए.
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सब ढूंढने लगे पर किसी को हार मिला ही नहीं. रानी तो कोप भवन में चली गई थी. हारकर राजा ने यहां तक कह दिया कि जो भी वह हार खोज निकालेगा उसे वह आधे राज्य का अधिकारी बना देगा.
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अब तो होड़ लग गई. राजा के अधिकारी और प्रजा सब आधे राज्य के लालच में हार ढूंढने लगे.
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अचानक वह हार किसी को एक गंदे नाले में दिखा. हार दिखाई दे रहा था, पर उसमें से बदबू आ रही थी लेकिन राज्य के लोभ में एक सिपाही कूद गया.
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बहुत हाथ-पांव मारा, पर हार नहीं मिला. फिर सेनापति ने देखा और वह भी कूद गया. दोनों को देख कुछ उत्साही प्रजा जन भी कूद गए. फिर मंत्री कूदा.
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इस तरह जितने नाले से बाहर थे उससे ज्यादा नाले के भीतर खड़े उसका मंथन कर रहे थे. लोग आते रहे और कूदते रहे लेकिन हार मिला किसी को नहीं.
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जैसे ही कोई नाले में कूदता वह हार दिखना बंद हो जाता. थककर वह बाहर आकर दूसरी तरफ खड़ा हो जाता.
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आधे राज्य का लालच ऐसा कि बड़े-बड़े ज्ञानी, राजा के प्रधानमंत्री सब कूदने को तैयार बैठे थे. सब लड़ रहे थे कि पहले मैं नाले में कूदूंगा तो पहले मैं. अजीब सी होड़ थी.
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इतने में राजा को खबर लगी. राजा को भय हुआ कि आधा राज्य हाथ से निकल जाए, क्यों न मैं ही कूद जाऊं उसमें ? राजा भी कूद गया.
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एक संत गुजरे उधर से. उन्होंने राजा, प्रजा, मंत्री, सिपाही सबको कीचड़ में सना देखा तो चकित हुए.
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वह पूछ बैठे- क्या इस राज्य में नाले में कूदने की कोई परंपरा है ? लोगों ने सारी बात कह सुनाई.
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संत हंसने लगे, भाई ! किसी ने ऊपर भी देखा ? ऊपर देखो, वह टहनी पर लटका हुआ है. नीचे जो तुम देख रहे हो, वह तो उसकी परछाई है. राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ.

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हम सब भी उस राज्य के लोगों की तरह बर्ताव कर रहे हैं. हम जिस सांसारिक चीज में सुख-शांति और आनंद देखते हैं दरअसल वह उसी हार की तरह है जो क्षणिक सुखों के रूप में परछाई की तरह दिखाई देता है.
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हम भ्रम में रहते हैं कि यदि अमुक चीज मिल जाए तो जीवन बदल जाए, सब अच्छा हो जाएगा. लेकिन यह सिलसिला तो अंतहीन है.
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सांसारिक चीजें संपूर्ण सुख दे ही नहीं सकतीं. सुख शांति हीरों का हार तो है लेकिन वह परमात्मा में लीन होने से मिलेगा. बाकी तो सब उसकी परछाई है.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))

मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल



गोकुल में एक मोर रहता था. वह रोज़ भगवान कृष्ण भगवान के दरवाजे पर बैठकर एक भजन गाता था- “मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे”.
रोज आते-जाते भगवान के कानों में उसका भजन तो पड़ता था लेकिन कोई खास ध्यान न देते. मोर भगवान के विशेष स्नेह की आस में रोज भजन गाता रहा.
एक-एक दिन करते एक साल बीत गए. मोर बिना चूके भजन गाता रहा. प्रभु सुनते भी रहे लेकिन कभी कोई खास तवज्जो नहीं दिया.
बस वह मोर का गीत सुनते, उसकी ओर एक नजर देखते और एक प्यारी सी मुस्कान देकर निकल जाते. इससे ज्यादा साल भर तक कुछ न हुआ तो उसकी आस टूटने लगी.
साल भर की भक्ति पर भी प्रभु प्रसन्न न हुए तो मोर रोने लगा. वह भगवान को याद करता जोर-जोर से रो रहा था कि उसी समय वहां से एक मैना उडती जा रही थी.
उसने मोर को रोता हुआ देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. आश्चर्य इस बात का नहीं था कि कोई मोर रो रहा है अचंभा इसका था कि श्रीकृष्ण के दरवाजे पर भी कोई रो रहा है!
मैना सोच रही थी कितना अभागा है यह पक्षी जो उस प्रभु के द्वार पर रो रहा है जहां सबके कष्ट अपने आप दूर हो जाते हैं.
मैना, मोर के पास आई और उससे पूछा कि तू क्यों रो रहा है?
मोर ने बताया कि पिछले एक साल से बांसुरी वाले छलिये को रिझा रहा है, उनकी प्रशंसा में गीत गा रहा है लेकिन उन्होंने आज तक मुझे पानी भी नही पिलाया.

यह सुन मैना बोली- मैं बरसाने से आई हूं. तुम भी मेरे साथ वहीं चलो. वे दोनों उड़ चले और उड़ते-उड़ते बरसाने पहुंच गए.
मैना बरसाने में राधाजी के दरवाजे पर पहुंची और उसने अपना गीत गाना शुरू किया- श्री राधे-राधे-राधे, बरसाने वाली राधे.
मैना ने मोर से भी राधाजी का गीत गाने को कहा. मोर ने कोशिश तो की लेकिन उसे बांके बिहारी का भजन गाने की ही आदत थी.
उसने बरसाने आकर भी अपना पुराना गीत गाना शुरू कर दिया- मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे”
राधाजी के कानों में यह गीत पड़ा. वह भागकर मोर के पास आईं और उसे प्रेम से गले लगा लगाकर दुलार किया.
राधाजी मोर के साथ ऐसा बर्ताव कर रही थीं जैसे उनका कोई पुराना खोया हुआ परिजन वापस आ गया है. उसकी खातिरदारी की और पूछा कि तुम कहां से आए हो?
मोर इससे गदगद हो गया. उसने कहना शुरू किया- जय हो राधा रानी आज तक सुना था की आप करुणा की मूर्ति हैं लेकिन आज यह साबित हो गया.
राधाजी ने मोर से पूछा कि वह उन्हें करुणामयी क्यों कह रहा है. मोर ने बताया कि कैसे वह सालभर श्याम नाम की धुन रमाता रहा लेकिन कन्हैया ने उसे कभी पानी भी न पिलाया.
राधाजी मुस्कराईं. वह मोर के मन का टीस समझ गई थीं और उसका कारण भी.
राधाजी ने मोर से कहा कि तुम गोकुल जाओ. लेकिन इसबार पुराने गीत की जगह यह गाओ- जय राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे.
मोर का मन तो नहीं था करुणामयी को छोडकर जाने का, फिर भी वह गोकुल आया राधाजी के कहे मुताबिक राधे-राधे गाने लगा.
भगवान श्रीकृष्ण के कानों में यह भजन पड़ा और वह भागते हुए मोर के पास आए, गले से लगा लिया और उसका हाल-चाल पूछने लगे.
श्रीकृष्ण ने पूछा कि मोर तुम कहां से आए हो. इतना सुनते ही मोर भड़क गया.
मोर बोला- वाह छलिये एक साल से मैं आपके नाम की धुन रमा रहा था, लेकिन आपने तो कभी पानी भी नहीं पूछा. आज जब मैंने पार्टी बदल ली तो आप भागते चले आए.

भगवान मुस्कुराने लगे. उन्होंने मोर से फिर पूछा कि तुम कहां से आए हो.
मोर सांवरिए से मिलने के लिए बहुत तरसा था. आज वह अपनी सारी शिकवा-शिकायतें दूर कर लेना चाहता था.
उसने प्रभु को याद दिलाया- मैं वही मोर हूं जो पिछले एक साल से आपके द्वार पर “मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे” गाया करता था.
सर्दी-गर्मी सब सहता एक साल तक आपके दरवाजे पर डटा रहा और आपकी स्तुति करता रहा लेकिन आपने मुझसे पानी तक न पूछा. मैं फिर बरसाने चला गया. राधाजी मिलीं. उन्होंने मुझे पूरा प्यार-दुलार दिया.
भगवान श्रीकृष्ण मुग्ध हो गए. उन्होंने मोर से कहा- मोर, तुमने राधा का नाम लिया यह तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा. मैं वरदान देता हूं कि जब तक यह सृष्टि रहेगी, तुम्हारा पंख सदैव मेरे शीश पर विराजमान होगा.

पागल बाबा का बनवाया हुआ बिहारी जी का मंदिर


वृंदावन में एक कथा प्रचलित है कि एक गरीब ब्राह्मण बांके बिहारी का परम भक्त था।
एक बार उसने एक महाजन से कुछ रुपये उधार लिए। हर महीने उसे थोड़ा- थोड़ा करके वह चुकता करता था। जब अंतिम किस्त रह गई तब महाजन ने उसे अदालती नोटिस भिजवा दिया कि अभी तक उसने उधार चुकता नहीं किया है, इसलिए पूरी रकम मय व्याज वापस करे।
ब्राह्मण परेशान हो गया। महाजन के पास जा कर उसने बहुत सफाई दी, अनुनय-विनय किया, लेकिन महाजन अपने दावे से टस से मस नहीं हुआ।
मामला कोर्ट में पहुंचा।कोर्ट में भी ब्राह्मण ने जज से वही बात कही,
मैंने सारा पैसा चुका दिया है। महाजन झूठ बोल रहा है।

जज ने पूछा, कोई गवाह है जिसके सामने तुम महाजन को पैसा देते थे।
कुछ सोच कर उसने कहा,

हां, मेरी तरफ से गवाही बांके बिहारी देंगे।
अदालत ने गवाह का पता पूछा तो ब्राह्मण ने बताया, बांके बिहारी, वल्द वासुदेव, बांके बिहारी मंदिर, वृंदावन।
उक्त पते पर सम्मन जारी कर दिया गया।
पुजारी ने सम्मन को मूर्ति के सामने रख कर कहा,
भगवन, आप को गवाही देने कचहरी जाना है।

गवाही के दिन सचमुच एक बूढ़ा आदमी जज के सामने खड़ा हो कर बता गया कि पैसे देते समय मैं साथ होता था और फलां- फलां तारीख को रकम वापस की गई थी।
जज ने सेठ का बही- खाता देखातो गवाही सच निकली। रकम दर्ज थी, नाम फर्जी डाला गया था।जज ने ब्राह्मण को निर्दोष करार दिया। लेकिन उसके मन में यह उथल पुथल मची रही कि आखिर वह गवाह था कौन।
उसने ब्राह्मण से पूछा। ब्राह्मण ने बताया कि वह तो सर्वत्र रहता है, गरीबों की मदद के लिए अपने आप आता है।
इस घटना ने जज को इतना उद्वेलित किया कि वह इस्तीफा देकर, घर-परिवार छोड़ कर फकीर बन गया।
बहुत साल बाद वह वृंदावन लौट कर आया पागल बाबा के नाम से।
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आज भी वहां पागल बाबा का बनवाया हुआ बिहारी जी का एक मंदिर है।...
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बोल वृंदावन बिहारी लाल की जय

भगवान की परिक्रमा


मंदिर में पूजा व आराधना के बाद हम मंदिर या प्रतिमा के चारो ओर परिक्रमा करते हैं। सामान्यत: देवी-देवताओं की परिक्रमा सभी करते हैं, लेकिन अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि परिक्रमा क्यों की जाती है।
इस संबंध धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से हमारे पाप खत्म होते है। देवी-देवताओं की कृपा से पैसों की परेशानी से मुक्ति मिलती है और घर-परिवार में प्रेम बना रहता है।
आरती, पूजन और मंत्र जप के असर से मंदिर क्षेत्र में हमेशा सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती रहती है। जब परिक्रमा करते है तो मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा हमें अधिक मात्रा में मिलती है और इसी वजह से श्रद्धालुओं को शांति और सुख का अनुभव होता है। मंदिर से प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा व दैवीय शक्ति हमें चिंताओं से मुक्त करती है। हमारा मन भगवान की भक्ति में रम जाता है।
परिक्रमा के माध्यम से हम दैवीय शक्ति ग्रहण कर पाते हैं, इसी वजह से परिक्रमा की परंपरा बनाई गई है। जिससे भक्तों की सोच भी सकारात्मक बनती है और बुरे विचारों से मुक्ति मिलती है। प्रतिमा की परिक्रमा करने से हमारे मन को भटकाने वाले विचार खत्म हो जाते हैं और शरीर ऊर्जावान होता है। कार्यों में सफलता मिलती हे

श्री राधा का विशुद्ध प्रेम

एक बार किसी ने श्री राधा के पास आकर श्री कृष्ण के स्वरुप र्सोंदर्य का और सद्गुणों का अभाव बतलाया और कहा कि - वे तुमसे प्रेम नही करते|
श्री राधा जी सर्वश्रेष्ठ विशुद्ध प्रेम की संपूर्ण प्रतिमा है अतः वे बोलीं:-
''असुंदरः सुंदरशेखरो वा गुणैविहीनो गुणीनां वरो वा द्वेषी मयि स्यात करूणाम्बुधिर्वा श्यामःस एवाघ गतिर्ममायम''

अर्थात - हमारे प्रियतम श्री कृष्ण असुंदर हो सुंदर शिरोमणि हो, गुणहीन हो या गुणियों में श्रेष्ठ ,मेरे प्रति द्वेष रखते हो या करूणा वरूणावलय रूप से कृपा करते हो, वे श्यामसुंदर ही मेरी एकमात्र गति हैं ...
महाप्रभु ने भी कहा है – वे चाहे मुझे हृदय से लगा ले या मुझको पैरों तले रौद डाले अथवा दर्शन से वंचित रख मर्मार्हत कर दे|
वे जैसे चाहे वैसे करे
मेरे प्राणनाथ तो वे ही है दूसरा कोई नही |

जैसे चातक होता है वह केवल एक मेघ से ही स्वाति की बूँद चाहता है न दूसरे की ओर ताकता है, न दूसरा जल स्पर्श करता है |
चातक कहता क्या है - चाहे तुम ठीक समय पर बरसो, चाहे जीवनभर कभी ना बरसो ,परन्तु इस चित्त चातक को केवल तुम्हारी आशा है,
अपने प्यारे मेघ का नाम रटते- रटते चातक की जीभ लट गई और प्यास के मारे अंग सुख गए, तो भी चातक के प्रेम का रंग तो नित्य नवीन और सुंदर ही होता जाता है ,
समय पर मेघ बरसता तो नही , उलटे कठोर पत्थर, ओले बरसाकर, उसने चातक की पंखो के टुकड़े - टुकड़े कर दिए, इतने पर भी प्रेम टेकी चातक के प्रेम प्रण में कभी चूक नहीं पड़ती |

मेघ बिजली गिराकर, ओले बरसाकर, और तूफान के झकोरे देकर ,चातक पर चाहे जितना बड़ा भारी रोष प्रकट करे पर चातक को प्रियतम का दोष देखकर क्रोध नही आता ,उसे दोष दीखता ही नही है |
गर्मियों के दिन थे, चातक शरीर से थका था, रास्ते में जा रहा था, शरीर जल रहा था, इतने में कुछ वृक्ष दिखायी दिये, दूसरे पक्षियों ने कहा इन पर जरा विश्राम कर लो परन्तु अनन्य प्रेमी चातक को यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि वे वृक्ष दूसरे जल से सीचे हुए थे|
एक चातक उड़ा जा रहा था किसी बहेलिये ने उसे तीर मारा वह गंगा जी में गिर पड़ा, परन्तु गिरते ही उस अनन्य प्रेमी चातक ने चोच को उलटकर ऊपर की ओर कर लिया |
चातक के प्रेम रूपी वस्त्र पर मरते दम तक भी खोच तक नही लगी |
विशुद्ध प्रेम रुप, गुण और बदले में सुख प्राप्त करने कि अपेक्षा नहीं करता,
''गुणरहितं कामना रहितं'' और वह बिना किसी हेतु के ही प्रतिक्षण सहज ही बढ़ता रहता है

''प्रतिक्षण वर्धमानम्''
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प्रेम से कहिये。。。

श्री राधे! श्री राधे!!
श्री राधे!! श्री राधे!

भजन

तेरी अँखियाँ है जादू भरी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी..!!

सुनलो मेरे श्याम सलोना,
तुमने ही मुझपर कर दिया टोना,

मैं तो तेरे ही द्वारे पड़ी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी,


तेरी अँखियाँ है जादू भरी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी..!!

तुमसा ठाकुर और न पाया
तुमसे मैं ने ही नेहा लगाया,

मेरी अँखियाँ तुमसे लड़ी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी,

तेरी अँखियाँ है जादू भरी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी..!!

कृपा करो हरिदास के स्वामी
बांकें बिहारी अन्तर्यामी,

मेरी टूटे न भजन की लड़ी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी,

तेरी अँखियाँ है जादू भरी
बिहारीजी मैं कब से खड़ी...!!

............श्री राधे ....

श्रीगोपीनाथ"

एक संत थे और अपने ठाकुर "श्रीगोपीनाथ" की तन्मय होकर सेवा-अर्चना करते थे। उन्होंने कोई शिष्य नहीं बनाया था परन्तु उनके सेवा-प्रेम के वशीभूत होकर कुछ भगवद-प्रेमी भक्त उनके साथ ही रहते थे। कभी-कभी परिहास में वे कहते कि -"बाबा ! जब तू देह छोड़ देगो तो तेरो क्रिया-कर्म कौन करेगो?"
बाबा सहज भाव से उत्तर देते कि -"कौन करेगो? जेई गोपीनाथ करेगो ! मैं जाकी सेवा करुँ तो काह जे मेरो संस्कार हू नाँय करेगो !"
समय आने पर बाबा ने देह-त्याग किया। उनके दाह-संस्कार की तैयारियाँ की गयीं। चिता पर लिटा दिया गया। अब भगवद-प्रेमी भक्तों ने उनके अति-प्रिय, निकटवर्ती एक किशोर को अग्नि देने के लिये पुकारा तो वह वहाँ नहीं था तो कुछ लोग उसे बुलाने गाँव गये परन्तु वह न मिला, इसके बाद दूसरे की खोज हुयी और वह भी न मिला। संध्या होने लगी थी, लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह किशोर शीघ्र आवे तो संस्कार संपन्न हो। अचानक प्रतीत हुआ कि किसी किशोर ने चिता की परिक्रमा कर उसमें अग्नि लगा दी। बाबा की देह का अग्नि-संस्कार होने लगा। दाह-संस्कार करने वाले को श्वेत सूती धोती और अचला [अंगोछा] धारण कराया जाता है सो भगवद-प्रेमियों ने उनके निकटवर्ती किशोर का नाम लेकर पुकारा ताकि उसे वस्त्र दिये जा सकें। किन्तु वह किशोर तो वहाँ था ही नहीं। सब एकत्रित हुए, आपस में पूछा कि किसने दाह-संस्कार किया परन्तु किसी के पास कोई उत्तर न था। संभावना व्यक्त की गयी कि कदाचित वायुदेव ने इस कार्य में सहायता की सो उन श्वेत वस्त्रों को उस चिता में ही डाल दिया गया। सब लौट आये।
प्रात: ठाकुर श्रीगोपीनाथ का मंदिर, मंगला-आरती के लिये खोला गया और क्या अदभुत दृष्य है ! ठाकुर गोपीनाथ श्वेत सूती धोती को ही धारण किये हुए हैं और उनके कांधे पर अचला पड़ा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र अथवा श्रंगार नहीं है। नत-मस्तक हो गये सभी। भक्त और भगवान ! कैसा अदभुत प्रेम ! कैसा अदभुत विश्वास ! एक-दूसरे को कैसा समर्पण ! जय हो-जय हो से समस्त प्रांगण गुँजायमान हो गया।
हे मेरे श्यामा-श्याम ! दास की भी यही आपसे प्रार्थना है। दास के पास देने को वैसा प्रेम और समर्पण तो नहीं है परन्तु आप तो सर्व-शक्तिमान और परम कृपालु प्रेमी हैं और दास का प्रेम-समर्पण भले ही न हो परन्तु विश्वास में तो आपकी कृपा से कोई न्यूनता नहीं है। तो हे प्रभु ! समय आने पर एक बार फ़िर ........।
जय जय श्री राधे !

Monday 16 November 2015

चन्दन का श्रृंगार"


श्री अंग का ताप मिटाने ठाकुर जी
करते है चन्दन का श्रृंगार". (चन्दन उत्सव)
जब हमें गर्मी लगती है तो हम
चन्दन, कर्पूर, तेल लगाते है,जिससे हमारे शरीर का
ताप कम हो जाये. जब भगवान को गर्मी
लगती है और भक्त उन्हें चन्दन का लेप लगाते हैं
तो वे भक्तों के सभी तापों को प्रसन्नतापूर्वक हर लेते
हैं। श्रीधामवृंदावन में ठाकुर श्री राधागोविंद
मंदिर, ठाकुर श्रीराधा गोपीनाथ मंदिर, ठाकुर
श्रीराधा मदनमोहन मंदिर, ठाकुर
श्रीराधादामोदर मंदिर, ठाकुर श्रीराधारमण
मंदिर, ठाकुर श्रीराधाविनोद गोकुलानंद मंदिर नामक सप्त
देवालयों की अत्यधिक मान्यता है। माध्वगौडेश्वर
संप्रदाय के इन सभी मंदिरों में प्राचीन काल
से "अक्षय-तृतीया" के दिन ठाकुरजी के
श्री विग्रहों के सर्वाग का कर्पूर मिश्रित चंदन से लेप
करके उनका चंदन के ही द्वारा अत्यंत नयनाभिराम व
चित्ताकर्षक श्रृंगार किया जाता है।
इस श्रृंगार में ठाकुर जी की पोशाक, उनके
अलंकार एवं अन्य साज-सज्जा तक चंदन की
ही हुआ करती है। साथ
ही ठाकुर जी को रायबेल के श्वेत पुष्पों
की महकती हुई माला भी
धारण कराई जाती है। यह श्रृंगार देखते
ही बनता है। साथ ही ठाकुर
जी के चारों ओर खस की टटिया लगाकर
उनका विभिन्न शीतल पदार्थो से भोग लगाया जाता है।
इसके अलावा राग वसंत की प्रधानता वाले भजन, पद,
रसिया एवं लोक गीतों आदि का गायन होता है।
भक्त श्रद्धालुओं को यह दर्शन सायंकाल होते हैं। इन
आकर्षक दर्शनों के लिए इतनी अधिक
भीड उमडती है कि समूचा वृंदावन
श्रद्धालुओं से भर जाता है। इस महोत्सव को "चंदन दर्शन" ,
"चंदनोत्सव", "चंदन यात्रा" आदि नाम दिए गए हैं। वृंदावन के
विश्व विख्यात ठाकुर बांकेबिहारी मंदिर में
भी अक्षय-तृतीया के दिन ठाकुर
जी को केवल लंगोटी धारण कराके और
उनके चरणों के सम्मुख चंदन का गोला रख कर के वर्ष भर में
केवल इसी दिन उनके चरणों के दर्शन कराए जाते हैं।
दर्शनार्थियोंकी सुविधा के लिए यह दर्शन प्रात:व सायं
दोनों समय होते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन
उनके दर्शन करने से बद्रीनाथ स्थित ठाकुर विग्रह
के दर्शन का फल मिलता है। चंदन दर्शन के सूत्रधार कलियुग
पावनावतार चैतन्य महाप्रभु के दादा गुरु माधवेंद्रपुरी
गोस्वामी थे। वह कृष्ण प्रेम भक्ति के प्रथम
अवतारी स्वरूप माने जाते हैं।
चन्दन उत्सव कथा
एक बार माधवेंद्रपुरी जी व्रज मंडल
जतीपुरा(गोवर्धन) में आये, जब वे रात में सोये तो गोपाल
जी उनके स्वप्न ने आये, और बोले -पुरी!
देखो में इस कुंज में पड़ा हूँ, यहाँ सर्दी,
गर्मी, वरसात, में बहुत दुःख पता हूँ. तुम इस कुंज
से मुझे बाहर निकालो और गिरिराज जी पर मुझे स्थापित
करो? जब माधवेंद्रपुरी जी सुबह उठे तो
उन्होंने व्रज के कुछ ग्वालो को लेकर उस कुंज में आये और
कुंज को ध्यान से खोदा, तो मिट्टी में एक
श्री विग्रह पड़ा था, उसे लेकर स्नान अभिषेक करके
पुरि जी ने स्थापित कर दिया.
एक दिन फिर श्री गोपाल जी स्वप्न में
आये और माधवेंद्रपुरी से कहा - कि
भीषण ग्रीष्म की तपिश से
मेरा शरीर तप रहा है। तुम जगन्नाथपुरी
स्थित मलयाचल से वहां का चंदन लाकर मेरे शरीर पर
लेप करो। माधवेंद्रपुरी गोस्वामी चंदन लेने
हेतु मलयाचल चले गए।रास्ते में रेमूणाय नामक ग्राम
आया, वहां "ठाकुर गोपीनाथ" का मंदिर था। मंदिर के
दर्शन कर फिर वे मलयाचल से अत्यधिक मात्रा में चन्दन लेकर
लौट रहे थे, तब वे रात्रि विश्राम के लिए फिर रेमूणाय ग्राम में
ठहर गए।
रात्रि में श्रीनाथ जी ने उन्हें यह स्वप्न
दिया कि तुम जो चन्दन लाए हो, उसका यही
रेमूणाय गोपीनाथ के शरीर पर
ही लेप करवा दो। मेरे अंग में लेपन करने से उनके
श्री अंग का ताप भी दूर हो जाएगा क्योंकि
ठाकुर गोपीनाथ और मैं एक ही हूं।
माधवेंद्रपुरी ने ऐसा ही किया। यह घटना
अक्षय तृतीया के दिन की ही
है। इस प्रकार चंदन-यात्रा की सेवा का समर्पण
क्रम सर्वप्रथम जगन्नाथपुरी स्थित ठाकुर जगन्नाथ
मंदिर में अक्षय-तृतीया के दिन प्रारम्भ हुआ। वहां
यह महोत्सव "वैशाख शुक्ल तृतीया से ज्येष्ठ
पूर्णिमा" की जल यात्रा तक पूरे एक
महीने अत्यंत श्रद्धा व धूमधाम के साथ मनाया जाता
है।
उक्त घटना से प्रेरणा लेकर वृंदावन में चंदन यात्रा की
विशिष्ट सेवा की परम्परा का शुभारंभ
श्रीलजीव गोस्वामी ने
अक्षय-तृतीया के दिन यहां के समस्त सप्त देवालयों
में कराया। यह सेवा अब यहां वृहद् रूप से होती
है। एक दिन की यह ठाकुर सेवा अत्यंत समय साध्य
व श्रम साध्य है। समस्त सप्त देवालयों के गोस्वामी
व भक्त-श्रद्धालु अक्षय-तृतीया के कई माह पूर्व
से अपने-अपने मंदिर प्रांगणों में बडे-बडे पत्थरों पर चंदन घिसने
का कार्य इस भाव से करते हैं कि प्रभु उनकी इस
सेवा को अवश्य ही स्वीकार करेंगे।
अक्षय-तृतीया के एक दिन पूर्व घिसे हुए चंदन को
एक जगह एकत्रित कर पुन:और अधिक महीन
पीसा जाता है ताकि ठाकुर विग्रहोंके किसी
भी श्रीअंग को किसी प्रकार
का कष्ट न हो।
अक्षय-तृतीया के दिन प्रात:महीन चंदन
में यमुना जल, गुलाब जल, इत्र, कर्पूर का पाउडर व केसर आदि
का मिश्रण गोस्वामी गणों द्वारा किया जाता है।
तत्पश्चात उक्त मंदिरों के सेवायतों द्वारा ठाकुर विग्रहोंके
श्री अंगों पर इस मिश्रण का लेप किया जाता है। इस
लेपन के अंतर्गत ठाकुरजीके शीश मुकुट,
पोशाक, वंशी, लकुटि,बाजूवंद,कंधनी,पटका
आदि चंदन से ही निर्मित कर कलात्मक रूप से
सुशोभित किए जाते हैं।
जय श्री राधै ....

'कुसुमसरोवर'

"जय श्री कृष्णा"
''पृथ्वी पर गिरे फूल पूजा के योग्य न रहे तो क्या करें''
एक दिन श्री किशोरी जी सखियों के साथ कुसुम वन में फूल चयन कर रही थीं। श्री श्यामसुंदर ने माली के रूप में दूर से खड़े होकर आवाज़ लगाई,'' कौन तुम फुलवा बीनन हारी?''
साथ की सखियां भयभीत होकर इधर-उधर भाग खड़ी हुईं। श्री किशोरी जी का नीलाम्बर एक झाड़ी में उलझ गया, भाग न सकीं। इस हड़बड़ाहट में एक-दो फूल भी उनके हाथ से गिर गए। इतने में माली का रूप छोड़ कर सामने श्री श्याम सुंदर आकर उपस्थित हुए। उन्होंने नीलाम्बर को झाड़ी से छुड़ा दिया। श्री राधा के द्वारा पृथ्वी पर गिरे फूल श्री श्यामसुंदर ने उठा लिए।
श्री किशोरी जी ने कहा, ''प्रियतम ! पृथ्वी पर गिरे फूल पूजा के योग्य तो रहे नहीं अब क्या करोगे इनका?''
श्री श्यामसुंदर ने उन फूलों को सरोवर के जल से धो लिया और बोले प्राणवल्लभे ! अब ये फूल शुद्ध हो गए हैं। इतना कह कर श्री श्यामसुंदर ने वे कुसुम श्री किशोरी जी की बेनी में लगा दिए। श्री युगल किशोर के आनन्द की सीमा न रही। तभी से यह सरोवर 'कुसुमसरोवर' नाम से प्रसिद्ध हो गया।
'कुसुमसरोवर' गोवर्धन
~~~जय जय श्री राधे~~~

दूरदृष्टि )

((((((((((((( दूरदृष्टि )))))))))))))
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कौवों का एक जोड़ा कहीं से उड़ता हुआ आया और एक ऊंचे पेड़ पर घोंसला बनाने में जुट गया.
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कौंवों को घोसला बनाते देख कर एक चुहिया ने कहा- देखो भाई ! इस पेड़ पर घोसला बनाना सुरक्षित नही है.
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कौए ने कहा- घोंसला बनाने के लिए इस ऊँचे पेड़ से ज्यादा सुरक्षित स्थान भला कौन-सा होगा ?
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चुहिए ने बताया- ऊँचा होते हुए भी यह पेड़ सुरक्षित नही है. तुम लोग मेरी बात को समझने की कोशिश करो.
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चुहिया कुछ बता पाती इससे पहले ही कौए ने उसे डांट दिया- हमारे काम में दखल मत दो. अपना काम करो.
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हम आसमान में उड़ते हैं. सारे जंगल को अच्छी तरह जानते हैं. तुम जमीन के अंदर रहने वाली चुहिया पेड़ों के बारे में हमें बताओगी ?
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शीघ्र ही कौओं ने एक घोसला बना लिया और उसमें रहने लगे. कुछ दिनों बाद मादा कौवे ने उसमें अंडे दिए.
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अभी अंडों में से बच्चे निकले भी न थे कि एक दिन अचानक तेज आंधी चली और देखते ही देखते वह पेड़ जड़ समेत उखड़ गया.
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कौओं का घोसला गिर गया. अंडे गिरकर चकनाचूर हो गए. कौए के परिवार का सुखी संसार पलभर में उजड़ गया था. वे रोने-पीटने लगे.
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चुहिया को बड़ा दुख हुआ. वह कौओं के पास जाकर बोली- भाई तुम तो कहते थे कि पूरे जंगल को जानते हो लेकिन तुमने इस पेड़ को केवल बाहर से देखा था.
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पेड़ की ऊंचाई देखी थी जड़ों की गहराई और स्वास्थ्य नहीं देखा.
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मैंने पेड़ को अंदर से देखा था. पेड़ की जड़ें सड़कर कमजोर हो रही थी यही बात मैं बता रही थी लेकिन तुमने सुनी ही नहीं.
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पेड की सही जांच जड़ से होती है, तनों से नहीं. यदि ऐसा करते तो तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहता. *******************************
हम चीजों को बाहर से बहुत चमकीला देखते हैं तो बड़े आकर्षित हो जाते हैं. उसकी चकाचौंध कई बार उलटे रास्ते ले जाती है.
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सीधे रास्ते चलने में वक्त लग सकता है, कष्ट हो सकता है लेकिन यदि मंजिल तक पहुंच गए तो वह स्थाई रहेगा.
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तुलसी माता


तुलसी माता को जल देने का मंत्र....

महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी ।
आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।

2⃣ तुलसी माता के पत्ते तोड़ते समय बोलने के मंत्र....

मातस्तुलसि गोविन्द हृदयानन्द कारिणीनारायणस्य पूजार्थं चिनोमि त्वां नमोस्तुते ।

- तुलसी चयन करके हाथ में रखकर पूजा के लिए नहीं ले जाना चाहिये शुद्ध पात्र में रखकर अथवा किसी पत्ते पर या टोकरी में रखकर ले जाना चाहिये।

श्री राधेश्याम प्रभु की एक लीला ...

श्री राधेश्याम प्रभु की एक लीला ....
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एक दिन बाज़ार मैं खडी के सखी कुछ बेच रही है . लोग आते हैं पूछते हैं और हंस कर चले जाते हैं . वह चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कोई तो खरीद लो . पर वो सखी बेच क्या रही है . अरे यह क्या ये तो नींद बेच रही है . आखिर नींद कैसे बिक सकती है . कोई दवा थोडी है . जो कोई भी नींद खरीद ले. सुबह से शाम होने को आई कोई ग्राहक ना मिला . सखी की आस बाकी है कोई तो ग्राहक मिलेगा शाम तक
दूर कुछ महिलाऐं बातें करती गाँव मैं जा रहीं हैं वो उस सखी का ही उपहास कर रही हैं . अरे एक पगली आज सुबह से नींद बेच रही है . भला नींद कोई कैसे बेचेगा . पगला गई है वो ना जाने कौन गाँव की है .
पीछे पीछे एक दूसरी सखी बेमन से गाय दुह कर आ रही है . वह ध्यान से उनकी बात सुन रही है .
बात पूरी हुई तो सखी ने उन महिलाओ से पूछा कौन छोर पे बेच रही है नींद . पता पाकर दूध वहीं छोड़ उल्टे कदम भाग पडी. अँधेरा सा घिर आया है . पर पगली सी नंगे पैर भागे जा रही है . बाजार पहुंच कर पहली सखी से जा मिली और बोल पडी . अरी सखी ये नींद मुझे दे दे . इसके बदले चाहे तू कुछ भी ले ले पर ये नींद तू मुझे दे दे, मैं तुझसे मोल पूछती ही नही तू कुछ भी मोल लगा पर ये नींद मुझे ही दे.

अब बात बन रही है , सुबह से खडी सखी को ग्राहक मिल गया है और दूसरी सखी को नींद मिल रही है . अब बात बन भी गई.
अब पहली सखी ने पूछा सखी मुझे सुबह से शाम हो गई. लोग मुझे पागल बता के जा रहे हैं तू एक ऐसी भागी आई मेरी नींद खरीद्ने . ऐसा क्या हुआ .
दूसरी सखी बोली सखी यही मैं तुझसे पूछना चाहती हूँ ऐसा क्या हुआ जो तू नींद बेच रही है .
पहली सखी बोली.
सखी क्या बताऊ . उसकी याद मैं पल पल भारी है मैने उससे एक बार दर्शन देने को कहा और वो प्यारा राज़ी भी हो गया . उसने दिन भी बताया के मैं अमुक मिलने आऊँगा . पर हाय रे मेरी किस्मत जब से उसने कहा के मैं मिलने आऊगा तब से नींद उड़ गई पर हाय कल ही उसे आना था पर कल ही आंख लग गई. और वो प्यारा आकर चला भी गया . हाय रे मेरी फूटी किस्मत . तभी मैने पक्का किया के इस बैरन , सौतन निन्दिया को बेच कर रहूँगी . मेरे साजन से ना मिलने दिया . .
अब इसे बेच कर रहूँगी .
.
अब तू बता कि तू इसे खरीद्ना क्यो चाहती है .
क्या बताऊ सखी . एक नींद मैं ही तो वो मुझसे मिलता है . दिन भर काम मैं सास ससुर .. घर के काम मैं फ़ुर्सत कहाँ . के वो प्यारा मुझसे मिलने आये. वो केवल ख्वाब मैं ही मिलता था. मैने उससे कहा अब कब मुझे अपने साथ ले चलेगा , उसने कहा अमुक दिन ले चलूँगा पर उसी दिन से नींद ही उड़ गई. सौतन अंखिया छोड़कर ही भाग गई. अब कहाँ से मिले वो प्यारा l हाय कितने ही जतन किये पर ये लौट कर ना आई. अब सखी तू ये नींद मुझे दे दे जिस से मुझे वो प्यारा मिल जाये. पहली सखी बोली. ले जा इस बैरन , सौतन को ताकि मैं सो न सकूँ . और वो प्यारा मुझे मिल सके .

भाव देखिये दोनो का भाव एक ही है पर तरीका अलग है *********************
हे श्री राधे कृपा करो ऐसी ही एक भक्ति हमे भी प्रदान करो .

प्रेम का रूहानी इत्र



प्रेम का रूहानी इत्र>> # पार्थ
एक व्यक्ति ने जब एक संत के बारे में सुना तो वह
पाकिस्तान से रुहानी इत्र लेकर वृन्दवन आया.
इत्र सबसे महगा था जिस समय वह संत से मिलने
गया उस समय वे भावराज में थे आँखे बंद करे
भगवान राधा-कृष्ण जी के होली उत्सव में
लीला में
थे.
उस व्यक्ति ने
देखा की ये तो
ध्यान में है .
तो उसने वह इत्र की शीशी उनके
पास में रख दी और
पास में बैठकर, संत की समाधी खुलने का इंतजार
करने लगा.
तभी संत ने भावराज में
देखा राधा जी अपनी पिचकारी भरकर
कृष्ण जी के पास
आई,
तुंरत कृष्ण जी ने राधा जी के ऊपर
पिचकारी चला दी.
राधा जी सिर से
पैर तक रंग में नहा गई अब तुरंत राधा जी ने
अपनी पिचकारी कृष्ण जी पर चला
दी पर
राधा जी की पिचकारी
खाली थी. संत
को लगा की राधा जी तो रंग डाल ही
नहीं पा रही है
संत ने तुरंत वह इत्र की शीशी
खोली और
राधा जी की पिचकारी में डाल
दी और तुरंत राधा जी ने
पिचकारी कृष्ण जी पर चला दी, पर
उस भक्त को वह
इत्र नीचे जमीन पर गिरता दिखाई दिया उसने
सोचा में इतने दूर से इतना महगा इत्र लेकर
आया था पर इन्होने तो इसे बिना देखे
ही सारा का सारा रेत में गिरा दिया पर वह कुछ
भी ना बोल सका थोड़ी देर बाद
संत ने आँखे
खोली उस व्यक्ति ने उन्हे प्रणाम किया.
संत ने कहा- आप अंदर जाकर बिहारी जी के
दर्शन
कर आये.
वह व्यक्ति जैसे ही अंदर गया तो क्या देखता है
की सारे मंदिर में वही इत्र महक रहा है और
जब
उसने बिहारी जी को देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य
हुआ
बिहारी जी सिर से लेकर पैर तक इत्र में नहा रहे
थे
उसकेआँखों से प्रेम अश्रु बहने लगे और वह
सारी लीला समझ गया तुरंत बाहर आकर संत के
चरणो मे गिर पड़ा और उन्हे बार- बार प्रणाम करने
लगा.
बोलो बाँके बिहारी लाल की जय
राधे राधे राधे गोविंद राधे।। जय श्री राधे कृष्णा।।

भजन

जपे जा राधे राधे, राधे राधे
भजे जा जय राधे राधे, राधे राधे
वृन्दावन धाम अपार, जपे जा राधे राधे,
राधे सब वेदन को सार, जपे जा राधे राधे।
जपे जा राधे राधे, भजे जा राधे राधे.
राधा अलबेली सरकार, जपे जा राधे राधे॥
जो राधा राधा गावे, वो प्रेम पदार्थ पावे।
वाको है जावे बेडा पार, जपे जा राधे राधे॥
वृन्दावन में राधे राधे, यमुना तट पे, राधे राधे…
जय राधे राधे, राधे राधे…
जो राधा राधा नाम ना होतो, रसराज बिचारो रोते।
नहीं होतो कृष्ण अवतार, जपे जा राधे राधे॥
बंसीवट पे राधे राधे, श्री निधिबन में राधे राधे…
जय राधे राधे, राधे राधे…
यह वृन्दावन की लीला, मत जानो गुड को चीला।
यामे ऋषि मुनि गए हार, जपे जा राधे राधे॥
दान गली में राधे, मान गली में राधे राधे
जय राधे राधे, राधे राधे…
तू वृन्दाव में आयो, तैने राधा नाम ना गायो।
तेरा जीवन है धिक्कार, जपे जा राधे राधे॥
यह वृज की अजब कहानी, यहाँ घट घट राधा रानी।
राधे ही कृष्ण मुरार, जपे जा राधे राधे॥
जय श्री राधे राधे जी

श्री राधा रानी


एक समय किसी महोत्सव के उपलक्ष्य में बुलाई हुई श्री राधा से यशोदा जी द्वारा अत्यंत आग्रहपूर्वक कुछ पूछने पर, लज्जा के मारे श्री राधा स्वयं उत्तर न देकर ललिता के कानों में धीरे धीरे कुछ कहने लगीं । उनको ऐसा करते देख यशोदा जी कहा - बेटी ! तुम कीर्तिदा की बेटी नहीं, बल्कि मेरी ही कन्या हो - यह सर्वथा सत्य है । श्री कृष्ण, जैसे मेरे प्राणस्वरूप हैं, तुम भी वैसे ही मेरी जीवनस्वरूपा हो; तुम्हे देखकर मुझे वैसा ही आनंद होता है, जैसा श्रीकृष्ण को देखने से; अतएव तुम लज्जा क्यों कर रही हो ? (उज्जवलनीलमणि:
अपराधवशतः दैन्य - एक दिन श्री राधा रानी श्री विशाखा जी को श्री कृष्ण के पास जाने के लिए प्रार्थना कर रहीं थीं, तब विशाखा जी श्री राधा से उलाहना देते हुए कहने लगीं - एक दिन तुम्हारे मानिनी होने पर श्री कृष्ण जब तुम्हारे सामने उपस्थित हुए और तुम्हारे चरणों में बारम्बार प्रणामकर अपने अपराध को क्षमा करने के लिए प्रार्थना करने लगे । उसी समय मैंने आपसे कहा - "हे सखी ! ये कान्त हमारे कोटि कोटि प्राणों की अपेक्षा भी अत्यंत प्रिय हैं । इन्होने केवल मात्र एक बार अपराध किया है । अतः इन्हें क्षमा कर दो" मेरे ऐसा कहने पर तुमने मुझसे कहा था - हे दुर्बुद्धि विशाखे ! तुम यहाँ से दूर चली जाओ । इस प्रकार तिरस्कार पूर्वक मुझे दूर भगा दिया था । अब, वही तुम, क्यों स्वयं मेरे निकट आकर मुझसे उन्हें प्रसन्नकर बुलाने के लिए आग्रह कर रही हो ? ऐसा सुनकर श्री राधा बड़ी नम्रतापूर्वक बोलीं - "सखी ! यद्यपि मैंने यथार्थ रूप में अपराध किया है तथापि इस विषय में मेरा क्या दोष है ? अर्थात मेरा दोष नहीं । उस समय मानरूपी सर्पिणी ने मुझे दंशन किया था । जैसा भी हो, हे सुन्दरि ! तुम मेरे दोषों के प्रति दृष्टिपात मत करो । शिखपिच्छमौलि से ऐसा अनुनय विनय करना कि वे मेरे प्रति विमुख न हों ॥
नित्य गौलोक धाम की लीलाएं साधारण नहीं हैं और उन लीलाओं को सुनना और उनका रसास्वादन करना उन लीलाओं को जाग्रत कर देता है, लेकिन वहां जो प्रधान है वह भाव है, यदि भाव नहीं है तो फिर वह कहानी की तरह हैं । सांसारिक भोगों में रहते हुए भी जो सद्ग्रहस्त भगवान की इन दिव्यातिदिव्य लीलाओं को सुने और भाव को प्रधानता देते हुए उसमें प्रवेश करने का प्रयास करे तो निश्चित ही श्यामा श्याम के दर्शनों की अनुभूति होगी ऐसा मे

राधा नाम की मस्ती



श्री राधे--
एक बार एक भक्त एक संत के चरणो मे पहूंचा ओर उस संत के चरणो मे प्रणाम करके उस भक्त ने कहा की-- बाबा,,,जबसे मेरे जीवन मे राधा नाम की मस्ती आयी है तबसे दूनियावाले मेरा मजाक उडाने लगे है ओर वो सब मुझे देखकर मेरा नाम लेकर नही बुलाते बल्कि मुझे देखकर मेरा मजाक उडाते हुए मुझे राधे राधे कहते रहते है,, वो कहते रहते है की अरे राधे राधे कहां जा रहा है?? अरे राधे राधे खाना खाया या नही?? अरे राधे राधे अब सो जा,--- बाबा ईस प्रकार की बाते दूनियावाले मुझे बोलते है ओर मेरा मजाक उडाते है तो मुझे बहूत बुरा लगता है---
उस भक्त की ये सब बातें सुनकर उन संत के ह्रदय मे आनंद भर आया ओर संत ने कहा की-- बेटा फिर तु रोता क्यो है?? ये तो किशोरी जी की बहूत बडी कृपा है तुमपर की तुम्हारे जीवन मे राधा नाम की मस्ती आई है ओर तुझे दुनिया की मजाक वाली बाते सुनकर दुखी नही होना चाहिये बल्कि तुम्हे तो खुश होना चाहिये की तुम्हारी वजह से दूनियावालो के मुख से भी राधे राधे नाम निकलता है- उनके मुझ से राधा नाम निकल रहा है यानि उनका भी कल्याण हो रहा है-- राधा नाम की बहुत महिमा है--
कलियुग मे नाम की बहूत महिमा है ईसलिए नाम चाहे कैसे भी लो,, नाम हर परिस्थिति मे कल्याण ही करता है---
संत की ये बाते सुनकर उस भक्त की आंखे भर आयी ओर उसने उन संत के चरणो मे प्रणाम किया---
ईस उदाहरण से ये शिक्षा मिलती है की दूनियावाले चाहे कितना भी विरोध करें लेकिन कभी भी हिम्मत नही हारनी चाहिये--
किसी के बहकावे मे नही आना चाहिये ,,जो भी सच्चे रास्ते पर चलेगा वही प्रभु को पायेगा-

कुम्हार पर श्रीकृष्ण कृपा



((((( कुम्हार पर श्रीकृष्ण कृपा )))))
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जब भगवान श्रीकृष्ण का ब्रजभूमि में अवतार होना था तो देव, गंधर्वों आदि ने भी ब्रह्माजी से जिद करके ब्रज में विभिन्न रूपों में जन्म लिया था.
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बाल भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के साथ चुहल कर लीलाएं करते रहे. गोपियों संग लीला करते भगवान श्रीकृष्ण उनकी मटकी फोड़ते, उनके घरों से माखन चुराते.
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गोपियां श्रीकृष्ण का उलाहना लेकर रोज यशोदा मैय्या के पास जातीं. गोपियां जानती थीं कि वे जितनी शिकायत करेंगी कान्हा उतना ही उन्हें छेंडेंगे.
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एक बार यशोदा माता श्रीकृष्ण के लिए आ रहे उलाहनो से तंग आ गईं और छड़ी लेकर श्री कृष्ण की और दौड़ीं. माता को क्रोध में देखकर बालकृष्ण बचने के लिए भागने लगे.
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भागते-भागते श्रीकृष्ण एक कुम्हार के पास पहुंचे. कुम्हार मिट्टी के घडे बनाने में व्यस्त था. कुम्हार ने श्रीकृष्ण को देखा तो बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि कुम्हार इस बात से परिचित था कि श्रीकृष्ण भगवान हैं.
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श्रीकृष्ण ने कुम्हार से कहा भाई आज यशोदा माता बहुत क्रोधित हैं. छडी लेकर आ रही हैं. मुझे कहीं छुपा लो बड़ी कृपा होगी. कुम्हार ने श्रीकृष्ण को एक बडे से मटके के नीचे छिपा दिया.
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यशोदा माता वहां आईँ और कुम्हार से पूछा- तुमने कान्हा को देखा ? कुम्हार ने मना कर दिया तो माता वहां से चली गईं. श्रीकृष्ण बडे से घडे के नीचे से छिपकर यह सब सुन रहे थे.
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श्रीकृष्ण ने कुम्हार से कहा- माता चली गईं. अब तो मुझे इस घड़े से बाहर निकालो.
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कुम्हार बोला मैं तो आप को घड़े से बाहर निकाल दूंगा पहले मुझे 84 लाख यानियों के बंधन से तो निकालो प्रभु.
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श्रीकृष्ण ने कुम्हार को मुस्करा कहा- चलो तुम्हें 84 लाख योनियो के बँधन से मुक्त करता हूं. अब तो मुझे घड़े के बंधन से मुक्त कर दो.
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कुम्हार कहने लगा- प्रभु मैं तो आपको घड़े से निकाल दूंगा लेकिन मेरे परिवार के लोगों को भी 84 लाख योनियो के बंधन से मुक्त कर दें.
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प्रभु ने उन्हें भी बंधन मुक्त किया और बोले अब तो मुझे घडे से निकाल दो.
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कुम्हार बोला- प्रभु आप जिस घड़े के नीचे छिपे हैं उसकी मिट्टी मेरे बैल लाद के लाए हैं. मेरे बैलो को भी 84 के बंधन से मुक्त करो.
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श्रीकृष्ण ने कहा- चलो उन बैलों को भी 84 लाख योनियों के बंधन से मुक्त करता हूं. अब तो तुम्हारी सारी इच्छा पूरी कर दी. अब तो घड़े से बाहर निकाल दो.
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कुम्हार ने कहा- एक और इच्छा है प्रभु. जो भी प्राणी हम दोनों के बीच का यह संवाद सुनेगा उसे भी 84 लाख योनियो के बंधन से मुक्त करो.
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कुम्हार की परोपकार की बात से भक्तवत्सल भगवान बड़े प्रसन्न होते हैं. कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरी कर दिया.
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तब जाकर कुम्हार ने प्रभु को घड़े से बाहर निकाला. प्रभु ने गले से लगा लिया और उसे जीवन और मृत्यु के चक्कर से मुक्त कर दिया.
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जो प्रभु गोर्वधन को अपनी एक अंगुली पर उठा सकते हैं वह क्या एक घडा नही उठा सकते थे. यह लीला तो बस प्रभु ने अपने भक्त के हृदय की गहराई की थाह लेने के लिए की. हम श्री कृष्ण लीला का स्मरण करते रहेंगे.
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तेरा दास तुझपे है कुरबान कान्हा !
बडा तेरा मुझपे है एहसान कान्हा !
जमी से उठा कर,
गले से लगाना,
वो अपना बनाना गजब ढा गया !
है मदहोश सारे,
वो जमुना किनारे,
वो बंशी बजाना गजब ढा गया !
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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कृष्ण गोवेर्धन पर्वत लीला



कृष्ण गोवेर्धन पर्वत लीला
भगवान श्री कृष्ण ने गिरिराज को उठा कर ये बताया है की गोवेर्धन पर्वत और कोई नही बल्कि साक्षात मैं ही हूँ। भगवान ने गोवर्धन पर्वत उठाया और भगवान का नाम पड़ा गिरधारी । गोवर्धन जी महाराज कौन हैं। इसके विषय में 2 प्रचलित कथाएं मिलती है। जो इस प्रकार है-
कथा 1
गर्ग संहिता के अनुसार एक बार पुलस्त्य ऋषि भ्रमण करते हुए द्रोणाच पहुंचे। वहां अनेक प्रकार के हरे-भरे वृक्षों से सुसज्जित मनोहारी गोवर्धन पर्वत को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। ऋषिवर ने गोवर्धनजी के पिता द्रोणाचल जी से उनके पुत्र को काशी ले जाने की इच्छा व्यक्त की। द्रोणाचल नही चाहते थे की उनके पुत्र को ऋषि लेके जाएं लेकिन पुलस्त्य के प्रताप से डरकर द्रोणाचल ने उदास मन से हामी भर दी। और गोवर्धन ने ऋषि के सामने यह शर्त रखी कि मार्ग में यदि आप मुझे कहीं भी रख देंगे, तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा और वहां से हिलूंगा भी नहीं।
ऋषि पुलस्त्य ने शर्त मान ली और वे अपने योगबल से गोवर्धन को अपनी दाहिनी हथेली पर रखकर काशी की ओर प्रस्थान कर गए। रास्ते में जब वे ब्रज के ऊपर से गुजर रहे थे, तब उन्हें लघुशंका लगी जब लघुशंका के लिए जा रहे थे तो उन्होंने गिरिराज पर्वत को वहीँ धरती पर रख दिया। जब निवृत होकर आये तो इन्होने गोवर्धन को उठाने का बहुत प्रयास किया, पर अपनी शर्त के अनुसार वे अपने स्थान से हिले भी नहीं।
हारकर पुलस्त्य मुनि अकेले ही काशी की ओर चल दिए, पर काशी जाने से पहले पुलस्त्य ऋषि ने गिरिराज गोवर्धन को शाप दे दिया कि दिनोंदिन तुम छोटे होते जाओगे। तुम तिल तिल घटोगे। जिस कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। यह उनके शाप का ही प्रभाव है कि पुराने समय की तुलना में आज गोवर्धन पर्वत का आकार बहुत छोटा हो गया है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है।आज भी भक्त गण गिरिराज पर्वत की परिक्रमा करते हैं। पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।
कथा 2
त्रेता युग में जब राम सेतु बंध का कार्य चल रहा था तो हनुमान जी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे लेकिन सेतु बन्ध का कार्य पूर्ण होने की देव वाणी को सुनकर हनुमान जी ने इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दिया। इससे गोवर्धन पर्वत बहुत दुःखी हुए और उन्होंने हनुमान जी से दुखी होते हुए कहा कि, “मैं श्री राम जी की सेवा और उनके चरण स्पर्श से वंचित रह गया।”
यह वृतांत हनुमान जी ने सेतु बंध पर जाकर श्री राम जी को सुनाया तो राम जी बोले, ” द्वापर युग में मैं इस पर्वत को धारण करुंगा एवं इसे अपना स्वरूप प्रदान करुंगा।” इसलिए गिरिराज पर्वत साक्षात भगवान कृष्ण का ही सवरूप हैं। 🌻🌹💐JAI SRI GIRI GOVARDHAN KI, HARE KRISHNA! SUPRABHATAM!!!

भजन



यमुना तट पर वृन्दावन में,
कहना तुझ संग मैं भी नाचूं ।


ग्वाल बाल संग मैं भी मिल कर, तेरी चर्चा छेडू ।
गोपन के संग मिल कर मैं भी चन्दन लेप लगाऊं ॥


कस्तूरी की तिलक लगा कर हर पल तुझे निहारूं ।
तेरी जूठी माखन खा कर, कहना रोम रोम खिल जाऊं ॥


मधुबन में बंसी की धुन से पुलकित मैं हो जाऊं ।
तुझ से प्रेम रचा कर कृष्णा, मोह जाल को तोडू ॥


तेरी आलिंगन से कहना भवसागर को तारुं ।
सचिदानंद तेरी गीतामृत में डूब के मैं खो जाऊं ॥


जय श्री कृष्णा
राधे राधे जी

भैया दूज


भैया दूज - यम द्वितीया | Bhaiya Dooj - Yama Dwitiya

हिन्दू समाज में भाई -बहन के स्नेह व सौहार्द का प्रतीक यह पर्व दीपावली दो दिन बाद मनाया जाता है. यह दिन क्योकि यम द्वितीया भी कहलाता है. इसलिये इस पर्व पर यम देव की पूजा भी की जाती है. एक मान्यता के अनुसार इस दिन जो यम देव की उपासना करता है, उसे असमय मृत्यु का भय नहीं रहता है.

हिन्दूओं के बाकी त्यौहारों कि तरह यह त्यौहार भी परम्पराओं से जुडा हुआ है. इस दिन बहनें अपने भाई को तिलक लगाकर, उपहार देकर उसकी लम्बी आयु की कामना करती हे. बदले में भाई अपनी बहन कि रक्षा का वचज देता है. इस दिन भाई का अपनी बहन के घर भोजन करना विशेष रुप से शुभ होता है.

भैया दूज का पौराणिक महत्व

भाई दूज के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है. कथा अनुसार जब यमपुरी के स्वामी यमराज को अपनी बहन यमुना से मिले बहुत समय व्यतीत हो जाता हैं तब वह बहन से मिलने की इच्छा से उसके पास आते हैं. यमुना जी भाई यम को अचानक इतने दिनों के उपरांत देखती हैं तो बहुत प्रसन्न होती हैं तथा उनका खूब आदर सत्कार करती हैं. बहन यमुना के इस स्नेह भरे मिलन से तथा उसके द्वारा किए गए सेवा भाव से प्रसन्न हो यमराज उन्हें वर मांगने को कहते हैं. यमुना जी उनसे कहती हैं कि वह सभी प्राणियों को अपने भय से मुक्त कर दें.

यम उनके इस कथन को सुन कर सोच में पड़ जाते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना तो असंभव है. यदि सभी मेरे भय से मुक्त हो मृत्यु से वंचित हो गए तो पृथ्वी इन सभी को कैसे सह सकेगी. सृष्टि संकट से घिर जाएगी. अत: तुम कुछ और वर मांग लो इस पर यमुना उन्हें कहती हैं कि आप मुझे यह आशीर्वाद प्रदान करें कि इस शुभ दिन को जो भी भाई-बहन यमुना में स्नान कर इस पर्व को मनाएंगे, वह अकाल मृत्यु के भय से मुक्त हो जाएंगे.

इस पर प्रसन्न होकर यमराज ने यमुना को वरदान दिया कि जो व्यक्ति इस दिन यमुना में स्नान करके भाई-बहन के इस पवित्र पर्व को मनाएगा, वह अकाल-मृत्यु तथा मेरे भय से मुक्त हो जाएगा. तभी से इस दिन को यम द्वितीया और भाई दूज के रूप में मनाया जाने लगा. जो भी कोई मां यमुना के जल मे स्नान करता है वह आकाल म्रत्यु के भय से मुक्त होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है. अत: इस दिन यमुना तट पर यम की पूजा करने का विधान भी है.

भगवान नारायण और .लक्ष्मी माता



एक बार भगवान नारायण लक्ष्मी जी से बोले, “लोगो में कितनी भक्ति बढ़ गयी है …. सब “नारायण नारायण” करते हैं !”
..तो लक्ष्मी जी बोली, “आप को पाने के लिए नहीं!, मुझे पाने के लिए भक्ति बढ़ गयी है!”
..तो भगवान बोले, “लोग “लक्ष्मी लक्ष्मी” ऐसा जाप थोड़े ही ना करते हैं !”
..तो माता लक्ष्मी बोली कि , “विश्वास ना हो तो परीक्षा हो जाए!”
..भगवान नारायण एक गाँव में ब्राह्मण का रूप लेकर गए…एक घर का दरवाजा खटखटाया…घर के यजमान ने दरवाजा खोल कर पूछा ,“कहाँ के है ?”
तो …भगवान बोले, “हम तुम्हारे नगर में भगवान का कथा-कीर्तन करना चाहते है…”
..यजमान बोला, “ठीक है महाराज, जब तक कथा होगी आप मेरे घर में रहना…”
…गाँव के कुछ लोग इकट्ठा हो गये और सब तैयारी कर दी….पहले दिन कुछ लोग आये…अब भगवान स्वयं कथा कर रहे थे तो संगत बढ़ी ! दूसरे और तीसरे दिन और भी भीड़ हो गयी….भगवान खुश हो गए..की कितनी भक्ति है लोगो में….!
लक्ष्मी माता ने सोचा अब देखा जाये कि क्या चल रहा है।
..लक्ष्मी माता ने बुढ्ढी माता का रूप लिया…. और उस नगर में पहुंची…. एक महिला ताला बंद कर के कथा में जा रही थी कि माता उसके द्वार पर पहुंची ! बोली, “बेटी ज़रा पानी पिला दे!”
तो वो महिला बोली,”माताजी , साढ़े 3 बजे है…मेरे को प्रवचन में जाना है!”
.लक्ष्मी माता बोली..”पिला दे बेटी थोडा पानी…बहुत प्यास लगी है..”
तो वो महिला लौटा भर के पानी लायी….माता ने पानी पिया और लौटा वापिस लौटाया तो सोने का हो गया था!!
..यह देख कर महिला अचंभित हो गयी कि लौटा दिया था तो स्टील का और वापस लिया तो
सोने का ! कैसी चमत्कारिक माता जी हैं !..अब तो वो महिला हाथ-जोड़ कर कहने लगी कि, “माताजी आप को भूख भी लगी होगी ..खाना खा लीजिये..!” ये सोचा कि खाना खाएगी तो थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास आदि भी सोने के हो जायेंगे।
माता लक्ष्मी बोली, “तुम जाओ बेटी, तुम्हारा प्रवचन का टाइम हो गया!”
..वह महिला प्रवचन में आई तो सही … लेकिन आस-पास की महिलाओं को सारी बात बतायी….
..अब महिलायें यह बात सुनकर चालू सत्संग में से उठ कर चली गयी !!
अगले दिन से कथा में लोगों की संख्या कम हो गयी….तो भगवान ने पूछा कि, “लोगो की संख्या कैसे कम हो गयी ?”
….किसी ने कहा, ‘एक चमत्कारिक माताजी आई हैं नगर में… जिस के घर दूध पीती हैं तो गिलास सोने का हो जाता है,…. थाली में रोटी सब्जी खाती हैं तो थाली सोने की हो जाती है !… उस के कारण लोग प्रवचन में नहीं आते..”
..भगवान नारायण समझ गए कि लक्ष्मी जी का आगमन हो चुका है!
इतनी बात सुनते ही देखा कि जो यजमान सेठ जी थे, वो भी उठ खड़े हो गए….. खिसक गए!
...पहुंचे माता लक्ष्मी जी के पास ! बोले, “ माता, मैं तो भगवान की कथा का आयोजन कर रहा था और आप ने मेरे घर को ही छोड़ दिया !”
माता लक्ष्मी बोली, “तुम्हारे घर तो मैं सब से पहले आनेवाली थी ! लेकिन तुमने अपने घर में जिस कथा कार को ठहराया है ना , वो चला जाए तभी तो मैं आऊं !”
सेठ जी बोले, “बस इतनी सी बात !…
अभी उनको धर्मशाला में कमरा दिलवा देता हूँ !”
...जैसे ही महाराज (भगवान्) कथा कर के घर आये तो सेठ जी बोले, “
"महाराज आप अपना बिस्तर बांधो ! आपकी व्यवस्था अबसे धर्मशाला में कर दी है !!”
महाराज बोले, “अभी तो 2/3 दिन बचे है कथा के…..यहीं रहने दो”
सेठ बोले, “नहीं नहीं, जल्दी जाओ ! मैं कुछ नहीं सुनने वाला! किसी और मेहमान को ठहराना है।”
..इतने में लक्ष्मी जी आई , कहा कि, “सेठ जी , आप थोड़ा बाहर जाओ… मैं इन से निबट लूँ!”
माता लक्ष्मी जी भगवान् से बोली, “प्रभु , अब तो मान गए?”
भगवान नारायण बोले, “हां लक्ष्मी तुम्हारा प्रभाव तो है, लेकिन एक बात तुम को भी मेरी माननी पड़ेगी कि तुम तब आई, जब संत के रूप में मैं यहाँ आया!!
संत जहां कथा करेंगे वहाँ लक्ष्मी तुम्हारा निवास जरुर होगा…!!”
यह कह कर नारायण भगवान् ने वहां से बैकुंठ के लिए विदाई ली। अब प्रभु के जाने के बाद अगले दिन सेठ के घर सभी गाँव वालों की भीड़ हो गयी। सभी चाहते थे कि यह माता सभी के घरों में बारी 2 आये। पर यह क्या ? लक्ष्मी माता ने सेठ और बाकी सभी गाँव वालों को कहा कि, अब मैं भी जा रही हूँ। सभी कहने लगे कि, माता, ऐसा क्यों, क्या हमसे कोई भूल हुई है ? माता ने कहा, मैं वही रहती हूँ जहाँ नारायण का वास होता है। आपने नारायण को तो निकाल दिया, फिर मैं कैसे रह सकती हूँ ?’ और वे चली गयी।

.......शिक्षा : जो लोग केवल माता लक्ष्मी को पूजते हैं, वे भगवान् नारायण से दूर हो जाते हैं। अगर हम नारायण की पूजा करें तो लक्ष्मी तो वैसे ही पीछे 2 आ जाएँगी, क्योंकि वो उनके बिना रह ही नही सकती ।✅
जहाँ परमात्मा की याद है।
वहाँ लक्ष्मी का वास होता है।
केवल लक्ष्मी के पीछे भागने वालों को न माया मिलती ना ही राम।

सम्पूर्ण पढ़ने के लिए धन्यबाद
इसे सबके साथ बाँटकर आत्मसात् करें।
ज्ञान बांटने से बढ़ता है और केवल अपने पास रखने से खत्म हो जाता है।
Jai Shri Krishna

।।मधुराष्टकम् ।।

 

।।मधुराष्टकम् ।।
 
अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥1॥

(हे कृष्ण !) आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपका जाना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ।। 1।।
 
वचनं मधुरं चरितं मधुरं
वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥2॥

आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ।।2।।
 
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः
पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥3॥

आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं , आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है। ।।3।।
 
गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥4॥

आपके गीत मधुर हैं, आपका पीना मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥4॥
 
करणं मधुरं तरणं मधुरं
हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥5॥

आपके कार्य मधुर हैं, आपका भाव सागर से तारनाफह मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥5॥
 
गुंजा मधुरा माला मधुरा
यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥6॥

आपका गुनगुनाना मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥6॥
 
गोपी मधुरा लीला मधुरा
युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥7॥

आपकी गोपियाँ मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप साथ मधुर हैं, आप के द्वारा मुक्ति देना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥7।।
 
गोपा मधुरा गावो मधुरा
यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥8॥

आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विकारों का दलन करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥8॥
 
केशवाय नमः।गोविन्दाय नमः।
नारायणाय नम:।

कृष्ण कब प्रकट होते हैं? ॥



कृष्ण कब प्रकट होते हैं? ॥

आनन्द स्वरूप में भगवान श्री कृष्ण हमेशा नन्द और यशोदा के गोकुल में ही प्रकट होते हैं।
यशोदा = हमेशा दूसरों को यश प्रदान करने वाली "बुद्धि"
नन्द = दूसरों की निन्दा न करने वाला "मन"
गोकुल = इन्द्रियों का समूह "शरीर"
कृष्णा = भगवान का आनन्द स्वरूप
जब व्यक्ति की बुद्धि सदैव दूसरों को यश देने वाली हो जाती है तो यह बुद्धि "यशोदा" बन जाती है, और व्यक्ति का मन दूसरों की निन्दा से रहित हो जाता है तो यह मन "नन्द" बन जाता है, तब इन्द्रियों के समूह "गोकुल" रूपी शरीर में आनन्द रूप में भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं।
तब हम गाने लगते हैं....
नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की।
यशोदा के लाला भयो, जय कन्हैया लाल की।
गोकुल में आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की।
क्या हमारे गोकुल में कृष्ण प्रकट हुये?
यदि नहीं तो हमें आज से ही बुद्धि को यशोदा और मन को नन्द बनाने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिये।
"जय जय श्री राधे