Friday 30 October 2015

करवा चौथ व्रत कथा 1..2..3

(करवा चौथ व्रत कथा 1..2..3..) पतिव्रत की शक्ति दर्शाता है करवाचौथ व्रत कथा
कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को करवाचौथ का व्रत मनाया जाता है। इस व्रत में महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और दांपत्य जीवन में प्रेम तथा सामंजस्य के लिए पूरे दिन निर्जला उपवास रखती हैं। करवाचौथ व्रत, वटसावित्री एवं हारितालिका तीज के समान ही दांपत्य जीवन के लिए शुभफादायी होता है। इस व्रत से संबंधित कई कथाएं प्रचलित हैं। करवाचौथ का व्रत रखने वाली महिलाएं इन्हीं कथाओं को सुनकर अपना व्रत पूरा करती हैं।

करवाचौथ की पहली कथा
एक समय की बात है कि एक गांव में करवा नाम की पतिव्रता स्त्री रहती थी। एक दिन करवा के पति नदी में स्नान करने गये। स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने करवा के पति के पांव पकड़ लिये और नदी के अंदर खींचने लगा। प्राण पर आये संकट को देखकर करवा के पति ने करवा को पुकारना शुरू किया।
करवा दौड़कर नदी के तट पर पहुंची जहां मगरमच्छ उसके पति के प्राण लेने पर तुला था। करवा ने झट से एक कच्चे धागे से मगर को बांध दिया। इसके बाद करवा यमराज के पास पहुंची। यमराज से करवा ने कहा कि मगरमच्छ ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। मगर को मेरे पति के पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में भेज दो।
यमराज ने कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मगर की आयु अभी शेष है। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूंगी। करवा के ऐसे वचन सुनकर यमराज डर गए और करवा के साथ आकर मगरमच्छ को यमपुरी भेज दिया। करवा के पति को दीर्घायु का आशीर्वाद मिला। कथा पूरी होने के बाद महिलाएं प्रार्थना करती हैं कि 'हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।'
करवाचौथ की दूसरी कथा
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहां तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। उसी दौरान करवाचौथ का व्रत आया। करवा ने अपने पति की लंबी आयु के लिए करवाचौथ का व्रत रखा। लेकिन भूख से करवा की हालत खराब होने लगी। छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं गयी। छोटे भाई ने दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख दिया। दूर से देखने पर चलनी की ओट में रखा दिया चतुर्थी के चाँद जैसा नज़र आ रहा था।
इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे देखकर भोजन कर सकती हो। बहन ने ऐसा ही किया। चलनी की ओट में रखे दीया को देखकर करवा ने अपना व्रत खोल लिया। इससे करवा के पति की मृत्यु हो गयी। करवा के भाभी ने कहा कि वास्तविक चांद को देखे बिना व्रत खोलने के कारण उसके पति की मृत्यु हुई है।
सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी। अपने सतीत्व से पति को पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रही और उसकी देखभाल करती है। पति के ऊपर उगने वाली सूई नुमा घास को वह एकत्रित करती जाती। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आया। सभी भाभियों ने करवा चौथ का व्रत रखा। जब भाभियां करवा से आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है।
लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने के लिए कह कर चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है।
सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। अपनी छोटी उंगुली को चीरकर छोटी भाभी करवा के पति के मुंह में अमृत डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्री गणेश-श्री गणेश कहता हुआ उठ बैठता है।
करवा चौथ की तीसरी कथा
शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।
परिणाम यह हुआ कि वीरवती के पति की मृत्यु हो गयी। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुन: प्राप्त हो गया।
राधै राधै राधै राधै राधै राधै राधै

रासक्रीडा

भगवान श्रीकृष्ण कि सेविका
गोपियाँ एक-दूसरे की बाहँ-में-बाहँ डाले खड़ी
थी.उन के साथ यमुनाजी के पुलिन पर भगवान ने
अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारंभ की.
रास लीला में स्वयं भगवान शंकर आये रास के बाहर
भगवान की सखी ललिता जी ने उन्हें युगल मंत्र का
उपदेश दिया और गोपी का श्रंगार कराया फिर
रास में प्रवेश कराया. सम्पूर्ण योगो के स्वामी
भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट
हो गये और उनके गले में अपने हाथ डाल दिए. इस
प्रकार एक गोपी और एक कृष्ण यही क्रम था.
गोपियाँ यही अनुभव कर रही थी कि हमारे प्यारे
तो हमारे ही पास है,
उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग
गयी. रासमंडल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम
श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगी. उनकी कलाईयो
के कंगन पैरों के पायजेब और करधनी के छोटे-छोटे घुँघुरू
एक साथ बज उठे. उस यमुनाजी की रमणरेती पर
ब्रजसुन्दरियो के बीच में भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी
अनोखी शोभा हुई ऐसा जान पडता था मानो
अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियो के
बीच में, ज्योतिर्मयी नीलमणि चमक रही हो.
नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमक-ठुमककर अपने
पाँव कभी आगे बढाती, और कभी पीछे हटा लेती,
कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखती, तो कभी
बड़े वेग से, कभी चाक की तरह घूम जाती, कभी अपने
हाथ उठ-उठाकर भाव बताती तो कभी विभिन्न
प्रकार से उन्हें चमकाती. कानो के कुंडल हिल-
हिलकर कपोलों पर आ जाते थे नाचने के परिश्रम से
उनके मुहँ पर पसीने की बूंदें झलकने से उनके मुख की
छटा निराली ही हो गयी थी केशो की चोटियाँ
कुछ ढीली पड़ गयी थी उनमे गुंथे हुए फूल गिरते जा रहे
थे भगवान के अंगों के संस्पर्श से गोपियों की
इन्द्रियाँ प्रेम और आनंद से विहल हो गयी उनके केश
बिखर गये, गहने अस्त-व्यस्त हो गये. भगवान ने उनके
गलों को अपने भुजपाश में बाँध रखा था. उस समय
ऐसा जान पडता था मानो बहुत से श्रीकृष्ण तो
साँवले-साँवले मेघ मंडल है और उनके बीच-बीच में
चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली है.
एक सखी श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर में
मधुर गान कर रही थी कोई गोपी भगवान के स्वर में
स्वर मिलकर गाने लगी एक सखी ने ध्रुपदराग में
गाया.भगवान ने वाह-वाह कहकर उसकी प्रशंसा
की. अब भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिए
गोपियों के साथ जलक्रीड़ा करने के उद्देश्य से यमुना
के जल में प्रवेश किया.यमुना जल में गोपियों ने प्रेम
भरी चितवन से भगवान की ओर देख-देखकर हँस-हँसकर
उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारे डाली. जल
उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया.
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रजयुवतियो ओर भौरों
की भीड़ से घिरे हुए यमुना तट के उपवन में गये. वह
बड़ा ही रमणीय था उसके चारो ओर जल और स्थल मे
बड़ी सुन्दर सुगंधवाले फूल खिले हुए थे. भगवान ने
गोपियों के साथ उस उपवन में विहार किया. ब्रह्मा
की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी.
ब्राह्ममुहूर्त आया, यधपि गोपियों की इच्छा अपने
घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण
की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गयी .

Thursday 29 October 2015

नारद मुनि





नारद मुनि को जब ब्रह्मा जी ने विवाह करने के लिए कहा तो उन्होंने विवाह करने से मना कर दिया और कहा आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। ब्रह्मा जी इस बात से काफी नाराज हुअ और नारद मुनि को शाप भी दे दिया। ‘‘तुमने मेरी आज्ञा नहीं मानी, इसलिये तुम्हारा समस्त ज्ञान नष्ट हो जायेगा और तुम गन्धर्व योनी को प्राप्त कर कामिनीयों के वशीभूत हो जाओगे।’’ इसलिए नारद जी पहले गंदर्भ माने जाते हैं।

नारद विवाह नहीं करना चाहते थे लेकिन ब्रह्मा के श्राप के कारण अब उन्हें कई स्त्रियों के साथ रहने का दंड मिल चुका था। इससे नारद दुःखी हुए। नारदजी ने कहा आपका श्राप स्वीकार है लेकिन एक आशीर्वाद दीजिए कि जिस-जिस योनि में मेरा जन्म हो, भगवान कि भक्ति मुझे कभी न छोड़े एवं मुझे पूर्व जन्मों का स्मरण रहे। दो योनियों में जन्म लेने के बाद भगवान की भक्ति के प्रभाव से नारद परब्रह्मज्ञानी हो गये।



लेकिन, विवाह से मना करने वाले नारद जी के मन में एक बार शादी की ऐसी इच्छा जगी कि स्वयं विष्णु भगवान भी हैरान रह गए। इस संदर्भ में रामचरित मानस में एक कथा है कि एक बार नारद मुनि को अभिमान हो गया था कि वह काम भाव से मुक्त हो गए हैं। विष्णु भगवान ने नारद का अभिमान भंग करने के लिए एक माया नगरी का निर्माण किया।

इस नगर में देवी लक्ष्मी राजकुमारी रूप में उत्पन्न हुईं। इन्हें देखकर नारद मुनि के मन में विवाह की इच्छा प्रबल हो उठी। वह विष्णु भगवान के पास हरि के समान सुन्दर रूप मांगने पहुंच गये। विष्णु भगवान ने नारद की इच्छा के अनुसार हरि रूप दे दिया।

हरि रूप लेकर जब नारद राजकुमारी के स्वयंवर में पहुंचे तो उन्हें विश्वास था कि राजकुमारी उन्हें ही वरमाला पहनाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उस कन्या ने नारद को छोड़कर दीन हीन रूप में बैठे भगवान विष्णु के गले में वरमाला डाल दिया।

 
 नारद वहां से उदास होकर लौट रहे थे तो रास्ते में एक जलाशय में अपना चेहरा देखा। अपने चेहरे को देखकर नारद हैरान रह गये क्योंकि उनका चेहरा बंदर जैसा लग रहा था। हरि का एक अर्थ विष्णु होता है और एक वानर होता है। भगवान विष्णु ने नारद को वानर रूप दे दिया था। नारद समझ गये कि भगवान विष्णु ने उनके साथ मजाक किया है। इन्हें भगवान पर बड़ा क्रोध आया।

नारद सीधा बैकुण्ठ पहुंचे और आवेश में आकर भगवान को श्राप दे दिया कि आपको मनुष्य रूप में जन्म लेकर पृथ्वी पर जाना होगा। जिस तरह मुझे स्त्री का वियोग सहना पड़ा है उसी प्रकार आपको भी वियोग सहना होगा। इसलिए राम और सीता के रुप में जन्म लेकर विष्णु और देवी लक्ष्मी को वियोग सहना पड़ा।

 



तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं लेता, हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।
नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी। उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’
नारद ने मन में सोचा, ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो?’ श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं। नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’
नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी। अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली, ‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे रौरव नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा। पर अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं। उन्होंने भी अपनी वीणा उठाई और राधा की स्तुति गाने लगे।

Wednesday 28 October 2015

दो घड़ी धर्म की




एक नगर में एक धनवान सेठ रहता था। अपने व्यापार के सिलसिले में उसका बाहर आना-जाना लगा रहता था। एक बार वह परदेस से लौट रहा था। साथ में धन था, इसलिए तीन-चार पहरेदार भी साथ ले लिए। लेकिन जब वह अपने नगर के नजदीक पहुंचा, तो सोचा कि अब क्या डर। इन पहरेदारों को यदि घर ले जाऊंगा तो भोजन कराना पड़ेगा। अच्छा होगा, यहीं से विदा कर दूं। उसने पहरेदारों को वापस भेज दिया।
दुर्भाग्य देखिए कि वह कुछ ही कदम आगे बढ़ा कि अचानक डाकुओं ने उसे घेर लिया। डाकुओं को देखकर सेठ का कलेजा हाथ में आ गया। सोचने लगा, ऐसा अंदेशा होता तो पहरेदारों को क्यों छोड़ता? आज तो बिना मौत मरना पड़ेगा। डाकू सेठ से उसका माल-असबाब छीनने लगे। तभी उन डाकुओं में से दो को सेठ ने पहचान लिया। वे दोनों कभी सेठ की दुकान पर काम कर चुके थे। उनका नाम लेकर सेठ बोला, अरे! तुम फलां-फलां हो क्या? अपना नाम सुन कर उन दोनों ने भी सेठ को ध्यानपूर्वक देखा। उन्होंने भी सेठ को पहचान लिया। उन्हें लगा, इनके यहां पहले नौकरी की थी, इनका नमक खाया है। इनको लूटना ठीक नहीं है।
उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा, भाई इन्हें मत लूटो, ये हमारे पुराने सेठ जी हैं। यह सुनकर डाकुओं ने सेठ को लूटना बंद कर दिया। दोनों डाकुओं ने कहा, सेठ जी, अब आप आराम से घर जाइए, आप पर कोई हाथ नहीं डालेगा। सेठ सुरक्षित घर पहुंच गया। लेकिन मन ही मन सोचने लगा, दो लोगों की पहचान से साठ डाकुओं का खतरा टल गया। धन भी बच गया, जान भी बच गई। इस रात और दिन में भी साठ घड़ी होती हैं, अगर दो घड़ी भी अच्छे काम किए जाएं, तो अठावन घड़ियों का दुष्प्रभाव दूर हो सकता है। इसलिए अठावन घड़ी कर्म की और दो घड़ी धर्म की। इस कहावत को ध्यान में रखते हुए अब मैं हर रोज दो घड़ी भले का काम अवश्य करूंगा।

sada brij me rahege