Monday 26 October 2015

Khatushyam ji




खाटूश्यामजी (अंग्रेज़ी: Khatushyam Ji) भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध कस्बा है, जहाँ पर बाबा श्याम का जग विख्यात मन्दिर है।

परिचय

हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटूश्यामजी कलियुग मे कृष्ण का अवतार है, जिन्होनें श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलियुग में उनके नाम से पूजे जायेंगे। कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि जैसे जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चराण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेमभाव रखकर पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।

श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या मौरवी के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।
सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यदि तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की और चलाया।
तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।
उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया। एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रगट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिय गया। एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई० में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिष्ठापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है। खाटूश्याम परिवारों की एक बड़ी संख्या के परिवार देवता है।



                                     









कुछ प्रसिद्ध नाम

बर्बरीक

खाटूश्यामजी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक थ। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। खाटूश्यामजी नाम तो कृष्ण ने उन्हें दिया था। इनका यह नाम इनके बडे-बडे और घने बाल[केश] होने के कारण पडा|
वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।
सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यदि तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की और चलाया।
तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

श्री मोरवीनंदन खाटूश्याम जी

ऋषि वेद व्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के अनुसार महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ। कामकटंककटा को "मोरवी" नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को एक पुत्ररतन की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया। ये वही वीर बर्बरीक हैं जिन्हें आज लोग खाटू के श्री श्याम, कलयुग के अवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जानते व मानते हैं।..

पाण्डव कुलभूषण मोरवीनंदन खाटूश्याम
दादा का नाम : महाबली भीमसेन
दादी का नाम : हिडिंबा
पिता का नाम : महाबली घटोत्कच
माता का नाम : कामकटंककटा (मोरवी)
अस्त्र  : तीन अमोघ बाण, धनुष
वाहन  : लीला घोड़ा
पाठ्य  : स्कन्द पुराण (कौमारिका खंड)







 
बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवन श्रीकृष्ण के पास द्वारका ले गए और उन्हें देखते ही श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक से यु कहा - "हे पुत्र मोर्वये! पूछो तुम्हे क्या पूछना है, जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो..." तत्पश्चात वीर बर्बरीक ने श्रीकृष्ण से पूछा - "हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है।..?" वीर बर्बरीक के इस निश्चल प्रश्न को सुनते ही श्रीकृष्ण ने कहा - "हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है।.. जिसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी... अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो.." श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर, बालक वीर बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम किया।.. एवं श्रीकृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को "सुहृदय" नाम से अलंकृत किया।

तत्पश्चात वीर बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान हासिल कर महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नवदुर्गा की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान की, जिससे तीनो लोको में विजय प्राप्त की जा सकती थी।.. एवं उन्हें "चण्डील" नाम से अलंकृत किया।.. तत्पश्चात माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पुर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयी। कुछ समय पश्चात जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल-रेपलेंद्र- दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भांति भस्म करके उनके यज्ञ संपूर्ण कराया... विजय नाम के उस ब्राह्मण का यज्ञ संपूर्ण करवाने पर देवता और देवियाँ वीर बर्बरीक से और भी प्रसन्न हुए और प्रकट हो यज्ञ की भस्म स्वरूपी शक्तियां प्रदान की... और विजय विप्र और वीर बर्बरीक को आशीर्वाद देकर वहाँ से अंतर्ध्यान हो गयी।

इन्ही वीर बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया है।

महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सन्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की... और तब इनकी मोरवी ने इन्हे युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे... जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सुर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि, यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ दिनों में महाभारत युद्ध में नही हो सकती और पांडवो की हार निश्चित रूप हो जायेगी... ऐसा सोचकर श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया... उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी एवं तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयी।.. एवं रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सुर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योंघाटन सभी उपस्थित लोगो के समक्ष इस प्रकार किया।..

देवियों ने कहा : "द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो इस प्रकार बोली- “ हे देवगण मैं सभी प्रकार का संताप सहनकरने में सक्षम हूँ... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भांति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ...”

गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छागया।.. थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...”

तभी देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्य वर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ ...”

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तुमने मिथ्या गर्व के इस देव सभा को चुनौती दी है।.. इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे... तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्म युद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे..."

ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर चूर हो गया।.. वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला - “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...”

यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े... वह बोले - “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन श्रीकृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे कलयुग में देवताओं के समान पूज्य बनने का वरदान पाने सौभाग्य स्वयं श्रीकृष्ण भगवान से प्राप्त होगा... “

तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -

तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि ! शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)

भावार्थ : "उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे..."

वहाँ उपस्थित सभी लोगो को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा - "अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया।.. इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए और इसमें श्रीकृष्ण का कोई दोष नहीं है।.."

इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम ! अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!

यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान ! उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)

भावार्थ : "ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त (श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया... और इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया।.. और कहा कि, "मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए..."

ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: ! यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ ! तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ : ततपश्चात मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा : " हे वत्स ! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है और जब तक सूर्य चन्द्रमा है, तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे...

देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि ! स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ : "तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे...और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे..."

बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: ! पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)

भावार्थ : "तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात पित्त कफ से पिटक रोग होंगे, उनको पूजा पाकर बड़ी सरलता से मिटाओगे..."

इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत ! इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)

भावार्थ : "और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो... इस भांति वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अन्तर्धान कर गई।.."

बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् ! देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि ! ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)

भावार्थ : "बर्बरीक जी का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं बर्बरीक जी के धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया (क्योकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था)... उसके वाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ।.."

योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों (सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चंडी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवा कर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर अमर कर दिया... एवं भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओ को पूर्ण करने का वरदान दिया... वीर बर्बरीक ने भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया जिसे श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊंचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की... एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को यह अभिमान हो गया कि, यह महाभारत का युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है, तब श्री अर्जुन ने कहा कि, वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है।... तब वीर बर्बरीक के शीश ने महाबली श्री भीमसेन का मान मर्दन करते हुए उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्रीकृष्ण की निति के कारण जीता गया।... और इस युद्ध में केवल भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था।.. वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा... एवं उस देव स्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी... देवताओं की दुदुम्भिया बज उठी... तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा - "हे वीर बर्बरीक आप कलिकाल में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे... अतएव आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये, हम लोगो से जो भी अपराध हो गए हो, उन्हें कृपा कर क्षमा कीजिये"

इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड गयी।.. सैनिको ने पवित्र तीर्थो के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजाएँ शीश के समीप फहराई... इस दिन सभी ने महाभारत का विजय पर्व धूमधाम से मनाया।

वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक जी का चरित्र स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड'" में सुविस्तार पूर्वक दिया हुआ है। ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में "माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड" के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।

शीश के दानी

जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होनें अपना शीश बिना किसी हिचकिचाहट के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। कृष्ण पान्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे, बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुये का साथ देने का वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्ध भुमि को करनी थी अत: कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार

भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों लाख देता है इसीलिये उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

हारे का सहारा

जैसा कि इस आलेख मे बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था इसीलिये बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।

मोरछडी धारक

बाबा हमेशा मयुर के पखों की बनी हुई छडी रखते है इसलिय इनहें मोर छडी वाला भी कहते है।




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