गोविन्द....
इस मस्त-ए-नज़र ने छेड़ा है
अब दर-ए-जिगर का क्या होगा
जो जख्म बना हो मरहम से
उस जख्म का मरहम क्या होगा
पर्दा तो अभी सरका ही नहीं
बैचैन है दिल फिर क्यों इतना
जब मिलकर निगाहें बिछुड़ेगी
उस वक्त का आलम क्या होगा
ये दिल की लगी कोई खेल नहीं
इस आग का बुझना मुश्किल है
जो आग लगाई आंसुओं ने
उस आग का हशर क्या होगा
आजा ओ गोपाल अब तो
इंतजार खत्म कब होगा ।।
इस मस्त-ए-नज़र ने छेड़ा है
अब दर-ए-जिगर का क्या होगा
जो जख्म बना हो मरहम से
उस जख्म का मरहम क्या होगा
पर्दा तो अभी सरका ही नहीं
बैचैन है दिल फिर क्यों इतना
जब मिलकर निगाहें बिछुड़ेगी
उस वक्त का आलम क्या होगा
ये दिल की लगी कोई खेल नहीं
इस आग का बुझना मुश्किल है
जो आग लगाई आंसुओं ने
उस आग का हशर क्या होगा
आजा ओ गोपाल अब तो
इंतजार खत्म कब होगा ।।
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