Tuesday 27 October 2015

रणवाड़ी के बाबा

राधे राधे..

रणवाड़ी के बाबा संपन्न ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, जब घर में अपने विवाह की बात सुनी तो ग्रहत्याग कर पैदल भागकर श्रीधाम वृंदावन आ गए. जिस समय वृंदावन आये थे उस समय वृंदावन भीषण जगल था, वही अपनी फूस की कुटी बनाकर रहने लगे, केवल एक बार ग्राम से मधुकरी माँग लाते थे.बाबा बाल्यकाल में ही व्रज आ गए थे इसलिए किसी तीर्थ आदि का दर्शन नहीं किया था. प्रायः ५० वर्ष का जीवन बीत गया था, एक बार मन में विचार आया कि चारधाम यात्रा कर आऊ. किन्तु प्रिया जी ने स्वपन में आदेश दिया इस धाम को छोड़कर अन्यत्र कही मत जाना, यही रहकर भजन करो, यही तुम्हे सर्वसिद्धि लाभ होगा.किन्तु बाबा ने श्री जी के स्वप्नदेश को अपने मन और बुद्धि की कल्पना मात्र ही समझकरउसकी कोई परवाह न की औरतीर्थ भ्रमण को चल पड़े.भ्रमण करते करते द्वारिका जी में पहुँचगए तो वहाँ तप्तमुद्राकी शरीर पर छाप धारण करली. चारो संप्रदायो के वैष्णवगण द्वारिका जाकर तप्तमुद्रा धारण करते है, परन्तु ये श्री वृंदावननीय रागानुगीय वैष्णवों की परंपरा के सम्मत नहीं है.बाबा जी ने व्रज के सदाचार की उपेक्षा की. तत्क्षण ही उनका मन खिन्न हो उठा और तीर्थ में अरुचि हो उठि और वेतुरंत वृंदावन लौट आये. जिस दिनलौटकर आये उसी रात्रि में श्री प्रिया जी ने पुन: स्वप्न दिया और बोली- तुमने द्वारिका की तप्तमुद्रा ग्रहण की है अतः तुम अब सत्यभामा के परिकर मेंहो गए हो, अब तुम व्रजवास के योग्य नहींहो, द्वारिका चले जाओ.इस बार बाबा को स्वप्न कल्पित नहीं लगा इन्होने बहुत से बाबा से जिज्ञासा की, सबने श्रीप्रिया जी के ही आदेश का अनुमोदन किया. गोवर्धन में भी एक बाबा कृष्णदास जी नाम के ही थे, वे इन बाबा केघनिष्ठ मित्र थे. एक बार आप उनके पास गोवर्धन गए तो उन्होंने गाढ़ आलिंगन किया और पूंछ इतने दिनों तक कहाँ थे?तो बाबा ने कहा -कि द्वारिका गया था और अपनी तप्त मुद्राये भीदिखायी, यह देखते ही बाबा अचानक ठिठक गए और लंबी श्वास लेते हुए बोले -ओं हो! आज से आपके स्पर्श की मेरी योग्यता भी विनष्ट हो गई, कहाँ तो आप"महाराजेश्वरी की सेविका(सत्यभामा)" और कहाँ में "एक ग्वारिनी की दासी(राधारानी).इतना सुनते ही बाबा एक दम स्तंभित हो गए और प्रणाम करने वापस लौट आये, और इनको सब वैष्णवों ने कहा - इसकाकुछ प्रतिकार नहीं परन्तु श्री प्रिया जीके साक्षात् आदेश के ऊपर भी क्या कोई उपदेश मन बुद्धि के गोचर हो सकता है?हताश हो कुटिया में प्रवेश कर इन्होने अन्नजल त्याग दिया अपने किये के अनुताप से और श्रीप्रिया जी के विरह से ह्रदय जलने लगा. कहते है इसी प्रकार ३ महीने तक रहे.अंतत: अन्दर की विरहानल बाहर शरीर पर प्रकट होने लगी. तीन दिन तक चरण से मस्तक पर्यंत क्रमशः अग्नि से जलकर इनकी काया भस्म हो गई, अचानक रात में सिद्ध बाबा जगन्नाथ दास जी जो वही पास में ही रहते थे,उन्हिने अपने शिष्य श्री बिहारीदास से कहा- देखो! तो इस बाबा की कुटिया में क्या हो रहा है ?उसने अनुसन्धान लगाया तो कहा -रणवाडी के बाबा की देह जल रही है, भीतर जाने का रास्ता नहीं था अंदर से सांकल बंद थी. सिद्ध बाबा समझ गए और बोले -ओं विरहानल! इतना कहकर बाबा की कुटिया के किवाड़ तोड़कर अंदर गए, और व्रजवासी लोग भी गए. सबने देखा कंठपर्यंत तक अग्नि आ चुकी थी, बाबा ने रुई मंगवाई और तीन बत्तियाँ बनायीं और ज्यो ही उन्होंने उनके माथे पर रखी कि एकदम अग्नि ने आगेबढकर सारे शरीर को भस्मसात कर दिया.जगन्नाथ बाबा वहाँ के लोगो से बोले-तुम्हारे गाँव में कभी दुःख न आएगा, भले ही चहुँ ओर माहमारी फैले, और आज भी बाबा कि वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा जाता है. इस घटनाको १०० वर्ष हो गए, आज भी सिद्ध बाबा की समाधि बनी हुई है और व्रजवासी जाकर प्रार्थना करके जो भी मांगते है मनोकामना पूरी होती है.धन्य है ऐसे राधारानी जी के दास और उनकी व्रजनिष्ठा जो शरीर तो छोड़ सकते है पर श्री धाम वृन्दावन नहीं.

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