Tuesday 27 October 2015

नींद तोहि बेचूँगी,आली

एक भक्त का पद है, जिसकी प्रथम पंक्ति है --
"नींद तोहि बेचूँगी, आली! जो कोई ग्राहक होय।"
इस पर विचार करें।
प्रेमरसभावितमति ब्रजसुन्दरियाँ अपना व्यवहारिक ज्ञान यहाँ तक खो बैठती हैं कि उन्हे प्रतीत होने लगता है - नींद भी खरीद-बिक्री की एक वस्तु है।
वास्तव में तो तमोगुण से उत्त्पन्न होने वाली निद्रा श्रीकृष्ण की स्वरूपभूता ब्रजसुन्दरियों को स्पर्श ही नही कर सकती।
अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के चिंतन में वृत्तियों के सर्वथा तन्मय हो जाने पर वे आत्मविस्मृत हो जाती हैं। इस आत्मविस्मृति को ही वे निद्रा मान लेती हैं।

सुषुप्ति की भाँति अज्ञान में उनकी वृतियां लीन हों, ऐसी उनकी निद्रा नहीं। उनकी चित्तभूमि में तो सोते समय भी नित्य निरन्तर अखण्ड श्रीकृष्ण स्फुरण होता ही रहता है -
"चलत चितवत, दिवस जागत, सुपन सोवत रात।
हृदय ते वह स्याम मूरति छिन न इत उत जात।"

ऐसी अनोखी निद्रा में ही एक गोपी विभोर थी --
प्रियतम श्री कृष्ण के चिंतन में अपने आपको भूली हुई शयन-पर्यंक पर अवस्थित थी।
उसी समय लीलाबिहारी आये, सर्वथा समीप तक आये। उन्होने गोपी को देखा, वे उसके पास कुछ कषण खड़े रहे, पर उसे उन्होने जगाया नही। बल्कि मिलनोत्कंठा बढाकर अधिकाधिक सुख देने के उद्देश्य से वे लौट गये।
उनके लौटते ही ब्रजसुन्दरी के हृदय-तन्तु उन्ही से नित्य जुड़े रहने के कारण खिंच-से गये और ब्रजसुन्दरी भाव-समाधि से जाग उठी।
अभी भी प्राणनाथ तन्तुओं को आकर्षित कर रहे थे। इसीलिए गोपी व्याकुल होकर प्रांगण की ओर दौड़ पडी। वहाँ देखा --
बिखरे हुए गुलाल पर चक्र, छत्र, यव, अंकुश, ध्वज आदि चिन्हों से युक्त प्रियतम के पदतल अंकित हैं।
अब तो गोपी के दुःख का पार नहीं --
'आह ! प्रियतम आँगन में आये और लौट गये और तुम री नींद! अरी बैरिन !! मुझे सुलाये रखा ? री तुझे लज्जा नही आती ?
तू मेरी सखि थी न ? मेरी व्यथा हरने आया करती थी और इसी के मूल्य में तुमने मेरे प्रियतम के दर्शन-सुख को हर लिया !
क्यों ? ठीक है न ? अच्छी बात है। सखी! मैने भर पाया। अब तु यहाँ से जा।

नहीं, नहीं। ठहर जा। यों तू पुनः मेरे पास आ जायेगी। इस वृन्दावन में तुझे पूछता ही कौन है, लौटकर पुनः मेरी ही वञ्चना करेगी।
इसीलिये सखी ! मैं तो तुझे बेच दूँगी -- किसी चाहने वाले के अधीन कर दूँगी, जिससे तू लौट न सके।
पर तेरा ग्राहक ब्रज में है कहाँ ?
हाय ! हाय !! कदाचित कोई तेरा ग्राहक मिल जाय तो नींद सखी! उसके हाथ तुझे बेचकर मैं अपना पिण्ड छुड़ा लूँगी।
बड़भागिनी ब्रजसुन्दरी श्री कृष्ण दर्शन में बाधा पाकर नींद जैसी वस्तु को भी बेचने का संकल्प कर रही है, पर हम लोग इतने अभागे हैं कि प्रत्यक्ष में जो वस्तुऐं श्री कृष्ण दर्शन में निरन्तर बाधक हैं उन्हे चाह-चाहकर, बुला-बुलाकर हृदय से लगाये रहते हैं और उनके न मिलने पर दुःखी होते रहते हैं।

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