Saturday 24 October 2015

रास पंचधयायी..........रासलीला

(रास पंचाध्यायी ____भाग-1)
रास लीला ..
प्रथम अध्याय
भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लामल्लिका .
वीक्ष्य रन्तुं मश्रच्क्रे योगमायामुपाश्रित: ..
शरद ऋतु थी इसलिए बेला, चमेली, रजनी, जुही, मल्लिका, आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर मँहक रहे थे. प्रकृति के कण-कण में उनकी मँहक समायी हुई थी, पंकज अर्थात कमल सूर्य उदय होने पर खिलते है पर आज बिना सूर्ये के रात में ही खिल रहे है. भगवान के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने पूर्व दिशा के मुखमंडल पर अपने शीतल किरणों रूपी करकमलों से लालिमा की रोली-केसर मल दी.उस दिन चन्द्रदेव का मण्डल अखंड था. उनकी कोमल किरणों से सारा वन अनुराग के रंग में रँग गया था. वन के कोने-कोने में उन्होंने अपनी चाँदनी के द्वारा अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था.
श्रीकृष्ण ने अपनी वासुरी पर व्रज सुंदरियों के मन को हरण करने वाली काम के बीज मन्त्र “क्लीं” का सप्तम स्वर छेड़ दिया. अचालक प्रकृति में परिवर्तन हो गया, जड़ जितने भी थे मानो सब चेतन हो गये और चेतन सप्तम स्वर सुनते ही जड़ हो गये. ध्वनि पाताल-नभ में पूर गयी. तीनो लोको में खलबली-सी मच गयी.
बाँसुरी भी एक-एक गोपी का नाम ले-लेकर बुला रही है ललिते, विशाखे, वृषभानुजे श्यामसुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन अपने वश में कर रखा था अब तो उनके मन की सारी वस्तुएँ भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा, आदि वृतियाँ भी छीन ली वंशी ध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी. वे बड़े वेग से दौडी पड़ी. किसी चीज का ख्याल ही नहीं है क्योकि आज प्रीतम ने आवाहन किया है आज युगों की साधना फलीभूत हुई है .ना कुल का ख्याल है ना तन का संभाल है ना काल का विचार है वे वर्वश होकर चली.
!! जय जय श्री राधे !!

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