Tuesday 27 October 2015

त्याग और प्रेम


एक दिन नारद जी विष्णु लोक को जा रहे थे. रास्ते में एक संतानहीन दुखी आदमी मिला. उसने नारद जी की खूब प्रशंसा की. नारदजी प्रसन्न हो गए.
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उन्हें खुश देखकर उस आदमी ने कहा- नारदजी आप चाहें तो क्या संभव नहीं. अगर आप मुझे आशीर्वाद दे देंगे तो मुझे संतान प्राप्त हो जाए.
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नारदजी ने कहा- मैं भगवान श्रीहरि के पास जा रहा हूँ. उनसे तुम्हारा मनोरथ बताउंगा. उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊँगा.
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नारद ने भगवान से उस व्यक्ति के संतान सुख के लिए कहा तो प्रभु ने यह कहते हुए टाल दिया कि उसके पूर्वजन्म के ऐसे कर्म ऐसे हैं कि अगले कई जन्मों तक उसे संतान नहीं होगी.
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अब नारदजी क्या कहते. उन्होंने उस व्यक्ति के सामने जाना भी उचित नहीं समझा. रास्ता बदलकर निकल लिए.
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इतने में एक दूसरे महात्मा भी विष्णुलोक के लिए उधर से निकले. उस व्यक्ति ने उनसे भी संतान के लिए प्रार्थना की.उन्होंने आशीर्वाद दिया और नौ महीने बाद उसके घर में संतान पैदा हुई.
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कई साल बाद वह व्यक्ति फिर नारदजी से टकराया. इससे पहले कि वह कुछ कहता, नारदजी बोल पड़े भगवान ने कहा है- तुम्हारे अभी कई जन्म संतान होने का योग नहीं है.
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इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा. उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारदजी के चरणों में डाला और कहा- एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है.
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नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वह झूठ बोले. यदि मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा दे देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती. वह तो किया नहीं, उलटे मुझे झूठा और उस दूसरे महात्मा से भी छोटा सिद्ध कराया.
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नारद कुपित होते हुए विष्णुलोक में पहुँचे और कटु शब्दों में भगवान से अपने मन की बात कह डाली.
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भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और कहा कि तुम्हें इसका उत्तर कुछ दिनों बाद दूंगा. नारद वहीं ठहर गए. बोला उत्तर लेकर ही जाउंगा.
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एक दिन भगवान ने कहा- नारद लक्ष्मी बीमार हैं. उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए. तुम जाकर किसी से माँग लाओ.
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नारद लोक-लोक घूमते रहे लेकिन लक्ष्मीजी के लिए अपना कलेजा देने वाला न मिला.
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अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र हुआ था.
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उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे दिया. उसकी मृत्यु हो गई. नारद ने उसका कलेजा ले जाकर भगवान के सामने रख दिया.
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भगवान ने कहा- नारद यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है. जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ.
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तुम्हारी अपेक्षा उसे मैंने संतान के वरदान का श्रेय क्यों लेने दिया उसका कारण समझो. जब कलेजे की जरूरत हुई तब तुमने अपना कलेजा निकाल कर नहीं दिया. तुम भी तो भक्त थे.
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तुम दूसरों से माँगते फिरे और उस महात्मा ने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया. त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ.
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नारद ने लज्जा से सिर झुका लिया. श्रीहरि उनके साथ उस महात्मा के पास पहुंचे और उन्हें जीवित कर दिया.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))

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